शुक्रवार, 4 फ़रवरी 2011
कुण्डलियाँ : अरविन्द कुमार झा
रविवार, 12 दिसंबर 2010
ग़ज़ल ; 'नवाब' शाहाबादी
मंगलवार, 9 नवंबर 2010
गुरेज़
ये संजय मिश्रा की नज़्म उन्हें मुबारकबाद देते हुए प्रकाशित कर रहे हैं .
मुबारकबाद दो उपलब्धियों के लिए-
१- इन्होने ब्लॉग जगत में अपनी धमाकेदार उपस्थिति निम्न उन्वान से जतायी है-
http://adbiichaupaal.blogspot.com/
2- संजय मिश्रा जी ने अब कविताकोश में भी अपनी जगह बना ली है
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फ़रेब देती है हमको दुनिया
कदम कदम पर
हमें पता ही नहीं कि हमने
फ़रेब खाएं हैं कितने अब तक
ये रिश्ते-नातों का खोखलापन
यहाँ दिखावे की सब मुहब्बत
फ़रेब खा कर भी मुस्कुराती
है मसलेहत की असीर बनकर
यूं ही जियेंगे न जाने कब तक
हमारी आँखें कभी खुलेंगी? सवाल ये है
कि हमको अपनी खबर नहीं है
हमारी मुट्ठी से वक़्त पल-पल निकल रहा है
कभी तो अपनी तरह से जीने का ढंग आए
हमारे जीवन में भी खूशी की उमंग आए
कि ये करिश्मा न खुद से होगा
सबील इसकी हमें ही करना पड़ेगी खुद से
जो मसलेहत से गुरेज़ करना भी आ गया तो
हमें बड़ा ही सुकून होगा
हक़ीक़तों का करेंगे हम सामना भी डटकर
और आईने में
हमें हमारी ही अपनी सूरत दिखाई देगी
हमें किसी से फ़रेब खाने की
फिर ज़रुरत नहीं रहेगी!!!
गुरुवार, 23 सितंबर 2010
मुहब्बतों का सुरूर
वो दूसरों के गुनाह हमको गिना रहा है, सुना रहा है.
उसे ख़बर ही नहीं है शायद
हर एक मज़हब के रास्ते की है एक मन्ज़िल
वो सबका मालिक जो एक है पर
न जाने उसके हैं नाम कितने,
सब उसकी महिमा को जानते हैं
मगर न मानेंगे इसकी कसमें उठाए फिरते हैं जाने कब से.
वही है दैरो-हरम का मालिक
तो मिल्कियत का वही मुहाफ़िज़ हुआ यक़ीनन
मगर ये ऐसा खुला हुआ सच
कोई न समझे तो क्या करें हम?
पढ़े-लिखे और कढ़े हुए सब
इस एक नुकते पे अपनी आँखों को बंद करके उलझ रहे हैं.
ख़ुदा, ख़ुदा है, वो सब पे क़ादिर है जब तो फिर क्यों
तमाम खल्के-ख़ुदा को शक है.
वो चाह ले तो तमाम दुनिया को एक पल में मिटा के रख दे
मगर वो मखलूक के दिलों में
मुहब्बतों के चराग़ रोशन किए हुए है.
हवस-परस्ती में रास्ते से भटक गए हैं जो चंद इन्सां
वही तो अपनी शिकस्त ख़ुर्दा अना की ज़िद में
अड़े हुए हैं.
वो नफ़रतों की तमाम फ़सलों को खून देने में मुन्हमिक हैं
उन्हें पता भी नहीं कि उनका ये कारे-बेजा
हमारी नस्लों को उनके वरसे में जंग देगा
तमाम इंसानियत की चीख़ें सुनेंगे हम-तुम
ज़मीं पे क़ह्तुर्रिज़ाल होगा.
सो, ऐसा मंजर कभी न आए
ख़ुदा-ए-बरतर
दुआ है तुझ से
हवस-परस्तों के तंग दिल को वसीअ कर दे
कुदूरतों को मिटा के उन में भी नूर भर दे
मुहब्बतों का सुरूर भर दे, मुहब्बतों का सुरूर भर दे!
संजय मिश्रा 'शौक़', लखनऊ .
गुरुवार, 16 सितंबर 2010
घनाक्षरी : अरविन्द कुमार झा ,लखनऊ
मांग लगे जैसे बीच रोड पे दरार है .
बिंदिया है चाँद तो मुंहासे हैं सितारे बने,
फिर भी निहारे आईना वो बार-बार है.
लहसुन की कली से दाँत दिखें हँसे जब,
इसी मुस्कान पे तो मिलता उधार है.
घुंघराली लट लटके है यूं ललाट पर,
जैसे टेलीफोन के रिसीवर का तार है
अरविन्द जी की किताब व्यंग्य पंचामृत से ......
शुक्रवार, 13 अगस्त 2010
नज़्म
मैं ज़र्द पत्तों से
ज़िन्दगी का सबक़ न सीखूं तो क्या करूं अब?
ये मेरी फ़िक्री सलाहियत का इक इम्तेहां नहीं तो ये और क्या है?
ये ज़र्द पत्ते जो रास्ते में ज़मीं के तन पर पड़े हुए हैं,
ये ज़र्द पत्ते,
कभी शजर के जवां बदन पर सजे हुए थे, टंके हुए थे,
जवां उमंगों से, हसरतों से भरे हुए थे,
हवा के बहते हुए समन्दर में खेलते थे,
तमाम मौसम की सख्तियों में किलोल करते थे, झेलते थे.
बहार का हुस्न इनके लबों की जुंबिश पे मुन्हसिर था.
शुआ-ए-उम्मीद फड़क के इनकी
जवां उमंगों को अपने लहू से सींचती थी
और इनके जिस्मों की थरथराहट को अपने सीने में भींचती थी
मगर ये मौसम भी मेहमां था कुछ इक दिनों का.
बस एक मुद्दत के बाद ऐसा हुआ कि इक दिन
ये ज़र्द पत्ते, शजर के तन से जुदा हुए तो किसी ने दिल का न हाल पूछा
ज़मीं ने इनको गले लगाया, पनाह भी दी.
ये ज़र्द पत्ते
अब अपने अगले सफर से पहले पड़ाव में हैं.
संजय मिश्रा 'शौक़'
०९४१५०५१९७३
शुक्रवार, 23 जुलाई 2010
गज़ल
'साहित्य हिन्दुस्तानी' को फख्र है कि उनकी कुछ रचनाएँ दस्तयाब हो गई हैं, उनमे से एक गज़ल पेश है:
अजमतों के बोझ से घबरा गए
सर उठाया था कि ठोकर खा गए
ले तो आए हैं उन्हें हम राह पर
हाँ, मगर दांतों पसीने आ गए
भूख इतनी थी कि अपने जिस्म से
मांस खुद नोचा, चबाया, खा गए
कैदखाने से रिहाई यूं मिली
हौसले जंजीर को पिघला गए
बज गया नक्कारा-ए-फ़तहे-अजीम
जंग से हम लौट कर घर आ गए
इक नई उम्मीद के झोंके मेरे
पाँव के छालों को फिर सहला गए
उन बुतों में जान हम ने डाल दी
दश्ते-तन्हाई में जो पथरा गए.
छीन ली जब ख्वाहिशों की ज़िन्दगी
पाँव खुद चादर के अंदर आ गए
लखनऊ.
सेल- ०९४१५०५१९७३.
शुक्रवार, 9 जुलाई 2010
के.के.सिंह 'मयंक'
हुआ मंहगाई में गुम पाउडर, लाली नहीं मिलती
तभी तो मुझसे हंसकर मेरी घरवाली नहीं मिलती
ये बीवी की ही साजिश है कि जब ससुराल जाता हूँ
गले साला तो मिलता है मगर साली नहीं मिलती
मटन, मुर्गा, कलेजी, कोरमा अब भूल ही जाएँ
कि सौ रूपये में 'वेजीटेरियन थाली' नहीं मिलती
सभी पत्नी से घर के खाने की तारीफ़ करते हैं
कोई भी मेज़ होटल में मगर खाली नहीं मिलती
अगर पीना है सस्ती, फ़ौज में हो जाइए भर्ती
वगरना दस रूपये में बाटली खाली नहीं मिलती
प्रदूषण से तुम अपने हुस्न को कैसे बचाओगे
यहाँ तो दूर तक पेड़ों की हरियाली नहीं मिलती
म्युनिस्पिलटी ने हम रिन्दों पे कैसा ज़ुल्म ढाया है
कि गिरने के लिए 'ओपन' कोई नाली नहीं मिलती
हुआ है जबसे भ्रष्टाचार, शिष्टाचार में शामिल
हमारे राजनेताओं में कंगाली नहीं मिलती
'मयंक' स्टेज पर गीतों-गज़ल अब कौन सुनता है
न हों रचनाओं में गर चुटकुले, ताली नहीं मिलती
रविवार, 27 जून 2010
आह चाचा! वाह चाचा!
बढ़ा दिया है भतीजों ने भाव चाचा का .
दिखाई देता नहीं उम्र का असर उन पर,
है मेन्टेन अभी रखरखाव चाचा का.
चचा तराजू नहीं डोलची के बैंगन हैं,
न जाने होगा किधर, कब झुकाव चाचा का.
भतीजों को तो चचा जेब में धरे हैं मगर,
चची पे पड़ता नहीं है प्रभाव चाचा का.
ये राज़ कोई भतीजा न जान पायेगा,
कहां पडेगा अब अगला पड़ाव चाचा का.
रविवार, 6 जून 2010
चाचा को समर्पित एक और रचना
नहीं ले पाएगा कोई कभी स्थान चाचा का
न अब तक भूल पाए हम वो इक एहसान चाचा का
बहुत पहले कभी खाया था हम ने पान चाचा का
इन्हें महदूद मत करिए, चचा तो विश्वव्यापी हैं
न हिंदुस्तान चाचा का, न पाकिस्तान चाचा का
कोई दो चार सौ दे दे तो दीगर बात है वरना
नहीं बिकता है दस या बीस में ईमान चाचा का
यही दो-तीन फोटो और यही छह-सात लव लेटर
पुलिस वालों को बस इतना मिला सामान चाचा का
वो अपनी जेब में अरमानों की इक लिस्ट रखते हैं
नहीं निकला है अब तक एक भी अरमान चाचा का
चचा ग़ालिब भी माथा ठोंक लेंगे अपना जन्नत में
अगर पढ़ने को मिल जाए उन्हें दीवान चाचा का
शुक्रवार, 21 मई 2010
कविकुल के चाचा
तो नायक चाचा के तीन भतीजों ने उन्हें गजलों में बाँधा है -वे हैं- श्री अंसार कंबरी ,सत्यप्रकाश शर्मा और राजेन्द्र तिवारी
और चाचा के जलवे तो आजकल समीर लाल जी के यहाँ खूब दिखायी पड़ते हैं, सभी ब्लागर वाकिफ ही हैं .
आइये देखते हैं यहाँ चाचा का क्या हाल है-
चचा हमको समझते हैं,चचा को हम समझते हैं
भतीजे हैं इसी से हम चचा का गम समझते हैं
ये दीगर बात है वो शायरी को कम समझते हैं,
कभी कुड़मुड़ समझते हैं, कभी झइयम समझते हैं
वो मिसरे को चबाकर उसकी चमड़ी खींच लेते हैं ,
कभी कम्पट,कभी टाफी ,कभी चिंगम समझते हैं
चचा पहले थे हलवाई ,वही आदत अभी तक है ,
गजल को रसमलाई ,गीत को चमचम समझते हैं
सियासत में चचा आये तो उसकी इक वजह ये है ,
इसे रोजी कमाने की वो इक तिकड़म समझते हैं.
मंगलवार, 20 अप्रैल 2010
गज़ल - अरविन्द 'असर'
कैसे लागे लगन सोचिए
गंगाजल है प्रदूषित बहुत
कैसे हो आचमन सोचिए
काँटों की तो है फितरत मगर
फूल से भी चुभन सोचिए
पाँव उठते नहीं बोझ से
आप मेरी थकन सोचिए
और जितने थे सब बच गए
बस जली है दुल्हन सोचिए
२६८/४६/६६-डी, खजुहा,
तकिया चाँद अली शाह,
लखनऊ-२२६००४
फोन- 09415928198
सोमवार, 5 अप्रैल 2010
गीत -शरद मिश्र 'सिन्धु'
देशवासियों !बढ़ो कि देखो ,धरती तुम्हे पुकारती.
जाति-पाति की राजनीति ने काटा-छाँटा बहुत सुनो
मानवता के द्वय कपोल पर मारा चांटा बहुत सुनो
यादव, कुर्मी, हरिजन, पंडित और मुराई, लोधी हों ,
ठाकुर, लाला ,बनिया हो या किसी जाति के जो भी हों,
रहें प्रेम से सब मिलकर भारत माता मनुहारती .
हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, पंथों को लड़वाते हैं
रक्तपिपासु भेड़िये तो सत्ताहित रक्त बहाते हैं
धर्म एक मानव का जिसमें रहें प्रेम से जन सारे
धर्म नहीं कहलाता जो आँखों में भरता अंगारे
व्यर्थ लड़ाने की मंशा विषधर बनकर फुंफकारती .
तुमने अंग्रेजों से आजादी को छीना ,गर्व किया
लाल बहादुर ,पन्त ,जवाहर ने अपना सर्वस्व दिया
बलिदानों की परिपाटी में नाम तुम्हारा अमित रहा
जन्मभूमि की रक्षाहित तो रक्त तुम्हारा सतत बहा
नित राजीव और गांधी दे रक्त,उतारें आरती.
सागर की ड्योढी से कश्मीरी केसर की क्यारी तक
असम और अरुणांचल के संग हँसे कच्छ की खाड़ी तक
विन्ध्य, वैष्णव, मैहर की है शक्ति शिराओं -धमनी में
नहीं दूसरा जो हो तुम सा उत्सर्गी इस अवनी में
श्याम, राम, शंकर की थाती जन-गन-मन को तारती .
मानवता का परचम फहरे हो जय हो जय का जयगान
सम्प्रदाय की विषबेलें ना करें कलंकित अब सम्मान
हाथ पकड़ बढ़ चलें आज हम गली-गली में हो जयघोष
जय हो - जय हो से गुंजित हो दें नेतृत्व सजग निर्दोष
आज प्रकृति भारत माता का मंदिर सतत निखारती.
लखनउ
9415582926,
9794008047
शनिवार, 27 मार्च 2010
गजल -मंजरूल हक 'मंजर'लखनवी
उतरे उतरे से जो चेहरे हैं बहुत
खौफ ने पाँव पसारे हैं बहुत
सहमे सहमे हुए बच्चे हैं बहुत
इतनी मस्मूम है गुलशन की फजा
सांस लेने में भी खतरे हैं बहुत
बेशकीमती हैं ये किरदार के फूल
जिन्दगी भर जो महकते हैं बहुत
लुत्फ़ जीने में नहीं है कोई
लोग जीने को तो जीते हैं बहुत
मुत्तहिद हो गये पत्थर सारे
और आईने अकेले हैं बहुत
जो बुजुर्गों ने किये हैं रोशन
उन चरागों में उजाले हैं बहुत
सब्र के घूँट बहुत तल्ख़ सही
फल मगर सब्र के मीठे हैं बहुत
सीख लो फूलों से जीना मंजर
रह के काँटों में भी हँसते हैं बहुत
शनिवार, 20 फ़रवरी 2010
गज़ल - सर्वत एम्.
रविवार, 14 फ़रवरी 2010
नज़्म - सूर्य भानु गुप्त
कुर्सियाने के नए तौर निकल आते हैं
अब तो लगता है किसी से न मरेगा रावण
एक सर काटिए सौ और निकल आते हैं.
ऐसा माहौल है, गोया न कभी लौटेंगे
उम्र भर क़ैद से छूटेंगी न अब सीता जी
राम लगता है अयोध्या में नहीं लौटेंगे.
इंतजार और अभी दोस्तों करना होगा
रामलीला जरा कलयुग में खिंचेगी लम्बी
लेकिन यह तय है कि रावण को तो मरना होगा.
शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2010
रमेश नारायण सक्सेना 'गुलशन ' बरेलवी
बुधवार, 27 जनवरी 2010
गजल - अरविन्द असर
कि अक्सर तर्क के आगे सचाई हार जाती है
वो अपने दौर की उपलब्धियां कुछ यूं गिनाते हैं
बड़े आराम से अब तो वहां तक कार जाती है
भले ऊपर ही ऊपर बेईमानी खूब फलती हो
मगर अंदर ही अंदर आदमी को मार जाती है
निभा पाया नहीं कोई इसे इक बार भी शायद
तिरंगे की कसम खाई मगर हर बार जाती है
वो अपराधीकरण पर बस यही इक बात कहते हैं
अगर उनकी न मानें तो मेरी सरकार जाती है
थपेड़े खाती रहती है मेरे विश्वास की नैया
कभी इस पार आती है, कभी उस पार जाती है
भला किस तरह पहुचेंगी वहां मजलूम की आहें
जहाँ तक सिर्फ पायल की 'असर' झंकार जाती है.
शुक्रवार, 8 जनवरी 2010
कविता- अलका मिश्रा
शहर हूँ मैं
एक भरा पूरा शहर.
हजारों घर हैं परिंदों के,
इनकी चहचहाहट के सप्तम सुर भी.
हजारों कोटर हैं
गिलहरियों के,
इनकी चिक-चिक की मद्धम लय भी.
केचुओं और कीटों की
लाखों बांबियां
मेरी जड़ों में
और आठ-दस झूले
अल्हड नवयौवनाओं के.
अब समझे
पेड़ नहीं,
शहर हूँ मैं,
जहां चलती है
बस एक ही सत्ता
प्रकृति की,
मेरी लाखों शाखाएँ
अरबों पत्ते,
संरक्षित व सुरक्षित करते हैं
लाखों-करोड़ों जीवन
पलते हैं अनगिनत सपने
मेरी शाखों पर,
फलती-फूलती हैं कई-कई पीढ़ियां
मेरी आगोश में.
मूक साक्षी हूँ मैं
पीढ़ियों के प्रेम-व्यापार का,
शर्म से झुकती पलकों का
पत्ते बरसा कर सम्मान करता हूँ मैं.
मानसिक द्वंद से थका हुआ प्राणी
विश्राम पाता है मेरी छाया तले,
उसकी आँखों में चलता हुआ
भूत और वर्तमान का चलचित्र
जाने क्यों मुझे द्रवित करता है.
आकांक्षाओं व इच्छाओं का मूक दर्शक हूँ मैं,
पक्षियों के सुर संगीत व अपनी शीतल हवा
वार देता हूँ उन पर मैं
उनका दुःख हर कर
नवजीवन संचार का
आखिर मैं भी तो
एक अंग हूँ
प्रकृति का.
भले ही शहर/गाँव/देश हूँ मैं.
मंगलवार, 29 दिसंबर 2009
ग़ज़ल-- अरविन्द कुमार सोनकर "असर'
लब उसके हैं खामोश मगर बोल रहा है .
मैं जानता हूँ हिर्सो-हवस हैं बुरे फिर भी
मैं देख रहा हूँ मेरा मन डोल रहा है .
अब देखो वो भी मुल्क पढ़ाता है हमें पाठ
जिसका न कुछ इतिहास न भूगोल रहा है
मुद्दत हुई है फिर भी तेरे प्यार का वो बोल
कानों में मेरे आज भी रस घोल रहा है
ईमान का तो मोल ही अब कुछ भी नहीं है
वैसे ये कभी मुल्क में अनमोल रहा है
शायद वो किसी और ही ग्रह का है निवासी
जो सबसे बड़े प्यार से हंस-बोल रहा है
गैरों के असर राजे-निहाँ मुझको बताकर
वो अपना ही खुद राजे-निहाँ खोल रहा है
सम्पर्क....२६८/४६/६६ डी, खजुहा, तकिया चाँद अली शाह, लखनऊ-२२६००४.
दूरभाष-- ०५२२-२२४१५८४ मोबाइल-- 09415928198
रविवार, 6 दिसंबर 2009
नज़्म - सर्वत जमाल
उजाले दफन होंगे
अँधेरा ही बढेगा
अगर निकला भी सूरज
तो उसकी रोशनी पर
कोई बादल भी होगा।
हमारी फ़िक्र कुछ थी
मिला है और ही कुछ,
सवेरा रात जैसा
तो शामें दोपहर सी।
हम अपनी जिंदगी को
बुझी सी रोशनी को
कहाँ से ताजगी दें,
मिटायें तीरगी तो
ये मटमैले उजाले
ये सूरज, चाँद, तारे
सियासी जहन वाले
कहाँ तक साथ देंगे?
हमारे जहन में जब
गुलामी ही बसी है
तो फिर यह शोर क्यों है,
ये नारे, ये नज़ारे
ये उजले कपडों वाले
ये लहराते से परचम
ये कौमी धुन की सरगम
भला किसके लिए हैं?
सियासी ज़हन वालो
ये नाटक मत उछालो।
जरा सूरज की सोचो
अगर कुछ धूप हो तो
हम उसकी रोशनी में
ठिठुरते इस बदन को
हरारत तो दिला दें।
मगर यह फ़िक्र अपनी
हमारे जहन तक है।
यहाँ होना वही है
किसी की कब चली है
उन्हीं का बोलबाला
हमारी जिंदगी क्या
हंसी क्या है खुशी क्या
पुरानी चादरों पर
कलफ फिर से चढी है।
इसी में आफियत है....
यही जम्हूरियत है.....
शुक्रवार, 4 दिसंबर 2009
गजल - नवाब शाहाबादी- लखनऊ
नहीं खैरियत कांच वाले घरों की
किया है पड़ोसी ने मजबूर इतना
कि फसलें उगानी पड़ीं खंजरों की
बहुत सुन चुके दौरे-हाज़िर के किस्से
चलो अब सुनें दास्तां मकबरों की
बुतों की परस्तिश हमेशा करेंगे
न आयेंगे चालों में हम काफिरों की
मशक्कत के फूलों से इसको सजाकर
चमनज़ार कर दो जमीं बंजरों की
बला की है दोनों तरफ भीड़ लेकिन
इधर खुदसरों की, उधर सरफिरों की
जिसे आप कहते हैं शहरे-निगाराँ
वो बस्ती है नव्वाब जादूगरों की
सोमवार, 30 नवंबर 2009
गजल ;सत्यप्रकाश शर्मा ,
मुद्दतों बाद , लफ्ज़ आए हैं
लफ्ज़ टपके हैं उसकी आंखों से
उसने आंसू नहीं गिराए हैं
मिल गयी हैं वुजूद को आँखें
लफ्ज़ जब से नज़र आए हैं
हम तो खामोशियों के पर्वत से
लफ्ज़ कुछ ही तराश पाये हैं
लफ्ज़ बाक़ी रहेंगे महशर तक
इनके सर पर खुदा के साए हैं
ये सुखन और ये मआनी सब
लफ्ज़ की पालकी उठाए हैं
लफ्ज़ तनहाइयों में बजते हैं
जैसे घुंघरू पहन के आए हैं
लफ्ज़ की रोशनी में हम तुमसे
जान पहचान करने आए हैं
कानपुर
9450936917
शुक्रवार, 16 अक्तूबर 2009
ग़ज़ल ,राजेन्द्र तिवारी ,कानपुर
अब आँख के पानी के लिए सोचता है कौन
प्यास अपनी बुझाने में मसरूफ हैं सभी लोग
दरिया की रवानी के लिए सोचता है कौन
बेताब नयी नस्ल है पहचान को अपनी
पुरखों की निशानी के लिए सोचता है कौन
मिट्टी के खिलौनों पे फ़िदा होती है दुनिया
मिट्टी की कहानी के लिए सोचता है कौन
सब अपने लिए करते हैं लफ्जों की तिजारत
लफ्जों की मआनी के लिए सोचता है कौन?
मंगलवार, 29 सितंबर 2009
ग़ज़ल ; सत्यप्रकाश शर्मा
नज़र न लगे परिंदे ! उड़ान अच्छी है
न खुशकलाम अगर हो सको तो कम से कम
ख़मोश ही रहो ,दिल की ज़बान अच्छी है
चमकते लफ्ज़ निकाले हैं इन अंधेरों से
हमारे वास्ते दिल की खदान अच्छी है
ये जिन्दगी है ,यहाँ गम के खूब जंगल हैं
कहीं मिले तो खुशी की मचान अच्छी है
तुम्हारा दिल है ,तुम अपने ख़याल ख़ुद जानो
हमारे मुंह में हमारी ज़बान अच्छी है
खुशी का चेहरा उतरता है वक्त के आगे
मगर जो घटती नहीं ,गम की शान अच्छी है
ये जानता हूँ मुसीबत है प्यार में फ़िर भी
रहे बला से ,मुसीबत में जान अच्छी है
'प्रकाश' शेर कहो इस तरह कि लोग कहें
तुम्हारा दिल भी है अच्छा ,जबान अच्छी है ।
२५४ ,नवशील धाम
कल्यानपुर ,बिठूर मार्ग
कानपुर
9450936917
रविवार, 20 सितंबर 2009
गजल ; अंसार कंबरी ,कानपुर [उ. प्र.]
मैं बुरा हो गया ,वो भला हो गया
पूजते ही रहे हम जिसे उम्र भर
आज उसको भी हमसे गिला हो गया
जिस तरफ देखिये प्यास ही प्यास है
क्या हमारा शहर कर्बला हो गया
चाँद मेरी पहुँच से बहुत दूर था
आपसे भी वही फासला हो गया
एक साया मेरे साथ था कम्बरी
यूं लगा जैसे मैं काफिला हो गया ।
गुरुवार, 13 अगस्त 2009
गजल- मुश्ताक अहमद 'अर्श' चर्खार्वी
हसीं चेहरे का मंजर काटता है
सुना है जब से उसका हाले-गुरबत
कोई अंदर ही अंदर काटता है
न जाने और कितने लख्त होंगे
कोई बाजू कोई सर काटता है
शहर से लौट तो आया वो लेकिन
उसे गाँव का मंजर काटता है
ये इन्सां है कि है खंजर से बदतर
बड़ी फितरत से मिल कर काटता है
रहे क्या वो चमन में फूल बन कर
यहाँ पत्थर को पत्थर काटता है
भला तुम को कहूं मैं कैसे अपना
मुझे मेरा मुकद्दर काटता है
ये घर की अर्श वीरानी न पूछो
भरा घर है मगर घर काटता है.
शुक्रवार, 3 जुलाई 2009
गीत- सर्वत जमाल
लोगों ने फिर
रख लीं सलीबें हैं,
हाकिमों के हाथों में
शायद जरीबें हैं।
'राजधानी कूच' का
पैगाम है
गांव, बस्ती, शहर तक
कोहराम है
देवता वरदान देने पर तुले हैं
दो ही वर हैं
बाढ़ या सूखा।
खेत बिन पानी
फटे, फटते गये
या नदी की धार में
बहते गये
फसल बोना धर्म था, सो बो चुके हैं
क्या उगेगा
डंठलें ,भूसा .
शुक्रवार, 26 जून 2009
कविता ; सर्वत जमाल , गोरखपुर उ.प्र.
प्रेम, प्यार ,अनुराग ,मुहब्बत
यह भावनाएं मुझमें भी हैं
आख़िर हूँ तो मैं भी
इंसान ही ।
किसी की नशीली आँखें
सुलगते होंठ
खुले-अधखुले , सुसज्जित केश
मुझे भी प्रभावित करते हैं
शायद तुम्हे विश्वास नहीं
क्योंकि मेरी रचनाओं में
तुम्हें इसकी परछाई तक
दिखाई नहीं पड़ती।
यह भी मेरे
प्रेम , अनुराग
प्यार , मुहब्बत का
प्रमाण है
जो मुझे है
प्रकृति से ,
धरती से ,
विधाता की हर रचना से।
मैं नफरत करता हूँ
शोषण से ,
अत्याचार से ,
दिखावे से,
झूट को सच
और सच को
झूट कहने से ।
यही कारण है
मेरी रचनाएं
इनके विरोध में खड़ी हैं ।
जब कभी
इस अघोषित युद्ध में
जीत ,
मेरी कविताओं की
मेरे विचारों की होगी
और हार जायेंगे
शोषण , अत्याचार , कदाचार
एवं
धरती पर नफरत उगाने वाले
और उनके सहायक तत्व
तब इस धरती पर
सिर्फ़ प्रेम होगा
कोई बच्चा ,
नहीं शिकार होगा
कुपोषण और
बालश्रम के
दानव का ।
कोई महिला
देह्शोषित
नहीं होगी ।
कोई पुरूष
अपने ही
परिजनों की नजरों में
शर्मिन्दा नहीं होगा
तब
मेरी रचनाएं
फ़िर
समय का दर्पण बनेंगी
और एक
नया फलक बनाएंगी ,
इस धरती के लिए ।
मुझे विश्वास है
तब मैं अकेला नहीं रहूँगा
अजूबा नहीं रहूँगा
और ऐसा नहीं रहूँगा ।
परन्तु क्या
मेरे जीते जी
ऐसा होगा ?
मंगलवार, 23 जून 2009
गजल - महशर बरेलवी , लखनऊ
यह मजाक अच्छा है इन्सान का इन्सान के साथ
सिर्फ़ दो पल को मेरे लब पे हंसी आई है
कैसे दो पल ये गुजारूं नये मेहमान के साथ
कत्ल होने भी चला जाऊँगा हंसते हंसते
कोई देखे तो बुला कर मुझे सम्मान के साथ
तुझ से तो लाख गुना अच्छा है दाना दुश्मन
दोस्ती मैं नहीं करता किसी नादान के साथ
उनको अमवाजे-हवादिस से डराते क्यों हो
खेलते ही जो चले आए हैं तूफ़ान के साथ
मेरी किस्मत भी बदल देगा बदलने वाला
द्फ़्न हो जाऊंगा इक दिन इसी अरमान के साथ
दस्ते-वहशत की हुई अबके नवाजिश ऐसी
मेरा दामन भी गया मेरे गिरेबान के साथ
मैं भी घुट घुट के मरूं, यह मेरा शेवा ही नहीं
देख लेना कि मरूंगा मैं बड़ी शान के साथ
कौन जाने कि वो रहबर है कि रहजन महशर
कैसे चल दूँ मैं सफर को किसी अनजान के साथ
सोमवार, 15 जून 2009
गजल ; मंज़र लखनवी
इत्र ही इत्रदान में रखा।
आपको जिसने ध्यान में रखा
ख़ुद को दारुल अमान में रखा।
धूप में रह के मैंने गज़लों को
फिक्र के सायबान में रखा।
तब्सरा जब किसी पे मैंने किया
आईना दरमियान में रखा।
मेरे माँ-बाप की दुआओं ने
मुझको अपनी अमान में रखा ।
जो कहा दिल ने वो किया मैंने
ये परिंदा उड़ान में रखा।
नाम तेरा न आए गज़लों में
ये सदा मैंने ध्यान में रखा।
तुझको मैंने छुपा के दुनिया से
अपने दिल के मकान में रखा।
तू सादा लौही मेरी थी
दुश्मन को अपने ही तर्जुमान में रखा।
जब भी मैंने गजल कही 'मंज़र'
दिल की बातों को ध्यान में रखा।
गुरुवार, 11 जून 2009
गजल ; ज्योति शेखर
भूखे-नंगों का जश्ने-आजादी है।
आख़िर कुछ गूंगे लोगों ने मिलजुल कर
बहरों के दर पर आवाज उठा दी है।
हैं बदशक्ल स्वयंवर के सब भागीदार
किसको चुने ? बहुत बेबस शहजादी है।
इक-इक मण्डी है सब राजधानियों में
महँगी बिकती जिसमें उजली खादी है।
है जवाबदेही किसकी इन प्रश्नों की
यार सदन में प्रश्न यही बुनियादी है।
गुरुवार, 28 मई 2009
Fwd: niwedan
कविता : अलका मिश्रा
गज़ल ,के के सिंह ,मयंक
जिसमें न हो कोई भी दास
इश्को - मुहब्बत प्यार वफा
कब मुफलिस को आते रास
आओ मुझसे ले लो सीख
कहता है सबसे इतिहास
जिससे देश की हो पहचान
पहनेंगे हम वही लिबास
भीड़ को देख के लगता है
महलों से बेहतर वनवास
खारे जल का दरिया हूँ
कौन बुझाए मेरी प्यास
छत पर देख के उनको 'मयंक'
चाँद का होता है आभास ।
बुधवार, 27 मई 2009
गजल , ज्योति शेखर ,उ.प्र
हादसों के डर से जो सहमा नहीं है
आज फ़िर दंगा हुआ और उसका बेटा
अब तलक स्कूल से लौटा नहीं है ।
तुम कमीशन -जांच सब कुछ भूल जाते
तुमने नरसंहार को देखा नहीं है।
सब कहें ये हादसा ऐसे हुआ है
वो कहें ऐसा नहीं वैसा नहीं है।
उफ़ ये दिल है या अंधेरे बंद कमरे
कोई खिड़की कोई दरवाजा नहीं है।
सर से चुनर हाथ से बिछडे खिलौने
जिनका वहशत से कोई रिश्ता नहीं है।
देखकर माँ की नजर में सर्द दहशत
एक बच्चा देर से रोया नहीं है।
उजले भाषण -खाकी डंडे ,रंग ही रंग हैं
और बहता लाल रंग रुकता नहीं है।
किन फरिश्तों ने उसे कल बरगलाया
वो पडोसी तो मेरा ऐसा नहीं है।
मंगलवार, 26 मई 2009
ग़जल,राजेन्द्र तिवारी
मेरी खामोशियों में भी फ़साना ढूँढ लेती है
बड़ी शातिर है ये दुनिया बहाना ढूढ़ लेती है।
हकीकत जिद किए बैठी है चकनाचूर करने को
मगर हर आँख फ़िर सपना सुहाना ढूढ़ लेती है।
उठाती है जो ख़तरा हर कदम पर डूब जाने का
वही कोशिश समंदर में खजाना ढूढ़ लेती है ।
कमाई है न चिडिया की न कारोबार है कोई
वो केवल हौसले से आबो-दाना ढूढ़ लेती है ।
ये दुनिया मस्लहत 'मंसूर'की समझी नहीं अब तक
सलीबों पर जो हंसना-मुस्कुराना ढूढ़ लेती है ।
जुनूं मंजिल का राहों में बचाता है भटकने से
मेरी दीवानगी अपना ठिकाना ढूढ़ लेती है ।
ग़ज़ल ,सत्य प्रकाश शर्मा
हर एक बात की होती नहीं दलील मियाँ
अजब ये दौर है सब फाख्ता उडाते हैं
नहीं तो काम ये करते थे बस खलील मियाँ
हमें ये डर नहीं ,इज्ज़त मिले या रुसवाई
ये फिक्र है कि न एहसास हो जलील मियाँ
हुजूम तश्नालबों का है हर तरफ , लेकिन
दिखाई देती नहीं एक भी सबील मियाँ
सफ़ेद झूठ से सच हार जायेगा, तय है
बशर्ते ढूँढ लो शातिर कोई वकील मियाँ
हमारे जिस्म पे बेशक कोई खरोंच नहीं
हमारी रूह पे हैं बेशुमार नील मियाँ।
सोमवार, 11 मई 2009
ग़ज़ल: अंसार कम्बरी
रेत के दरिया , रेत के झरने , प्यास का मारा करता क्या
बादल-बादल आग लगी थी , छाया तरसे छाया को
पत्ता-पत्ता सूख चुका था, पेड़ बेचारा करता क्या
सब उसके आँगन में अपनी राम कहानी कहते थे
बोल नहीं सकता था कुछ भी घर चौबारा करता क्या
तुमने चाहे चाँद-सितारे ,हमको मोती लाने थे
हम दोनों की राह अलग थी साथ तुम्हारा करता क्या
ये न तेरी और न मेरी ,दुनिया आनी-जानी है
तेरा - मेरा, इसका-उसका फ़िर बँटवारा करता क्या
टूट गये जब बंधन सारे और किनारे छूट गये
बीच भंवर में मैंने उसका नाम पुकारा ,करता क्या
ग़ज़ल ; राजेन्द्र तिवारी ,कानपुर
अगर तुम प्यार का मतलब न समझे
नया किस्सा ज़माने ने गढा क्या ?
तुम उसके नाम पर क्यों लड़ रहे हो