जो पत्थर आ के लगता है मुझे पत्थर नहीं लगता
हैं इतने जख्म अब जख्मों से कोई डर नहीं लगता।
निकल जाता हूँ अपने जिस्म से अक्सर सफर पर मैं
मगर जब लौटता हूँ ,जिस्म अपना घर नहीं लगता।
मैं आत्मा हूँ ! नहीं हूँ जिस्म , जो पहचान लेता है
कोई कद उसको अपने जैसा कद्दावर नहीं लगता।
ये दुनिया सर झुकाती है फकीरों के मजारों पर
कोई भी मेला शाहों के मजारों पर नहीं लगता।
ये दुनिया ख़्वाब है और ख़्वाब को तो टूट जाना है
ख़जाने जोड़ते इन्सान को अक्सर नहीं लगता।
है मिटटी में ही सोना एक दिन ,हम इसीलिए प्यारे
जहाँ सोते हैं फूलों का कोई बिस्तर नहीं लगता।
शुक्रवार, 13 मार्च 2009
ग़ज़ल :- सर्वत जमाल
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