गुरुवार, 16 सितंबर 2010

घनाक्षरी : अरविन्द कुमार झा ,लखनऊ

          मुख रोटी जैसा गोल केश रंगे तारकोल,
मांग लगे जैसे बीच रोड पे दरार है .

         बिंदिया है चाँद तो मुंहासे हैं सितारे बने,
फिर भी निहारे आईना वो बार-बार है.

        लहसुन की कली से दाँत दिखें हँसे जब,
इसी मुस्कान पे तो मिलता उधार है.

         घुंघराली लट लटके है यूं ललाट पर,
जैसे टेलीफोन के रिसीवर का तार है

अरविन्द जी की किताब व्यंग्य  पंचामृत से ......
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