मंगलवार, 31 मार्च 2009

गीत- सर्वत jamal

मधुमासी दिन बीत चुके हैं
सुख के सागर रीत चके हैं
आज महाभारत से पहले
कौरव बाजी जीत चुके हैं
आँगन आँगन सन्नाटा है

दुखियारों की रात बड़ी थी
पैरों में ज़जीर पडी थी
दशरथ तो वर भूल चुके थे
कैकेयी की आँख गडी थी
पुरखों की गति सिखलाती है
धर्म निभाने में घाटा है
ताने बाने बिखरे बिखरे
सभी सयाने बिखरे बिखरे
जीवन ने वो रूप दिखाया
हम दीवाने बिखरे बिखरे
पहले मन में क्रांति बसी थी
अब तो दाल, नमक, आटा है.

शुक्रवार, 27 मार्च 2009

ग़ज़ल- सर्वत जमाल

गुलामी सब अभी तक ढो रहे हैं
और इस पर भी सभी खुश हो रहे हैं

घरों तक पैठ है दुश्मन की लेकिन
हमारे शहर में सब सो रहे हैं

बुलंदी, रौशनी, सम्मान, दौलत
ये सारे फायदे किस को रहे हैं

कटाई का समय सर पर खड़ा है
किसान अब खेत में क्या बो रहे हैं

दरिन्दे भी, किसी पल आदमी भी
यहाँ चेहरे सभी के दो रहे हैं

सुना है आप हैं बेदाग़ अब तक
तो दामन फिर भला क्यों धो रहे हैं

अभी तक रो रहे थे बंदिशों पर
अब आज़ादी का रोना रो रहे हैं

हमें छालों का दुखडा मत सुनाओ
सफर में साथ हम भी तो रहे हैं

अंधेरों ने किया दुनिया पे कब्जा
उजाले अपनी ताक़त खो रहे है

सोमवार, 23 मार्च 2009

गीत ; नवाब शाहाबादी , लखनऊ [उ.प्र.]

बगिया में अमवा भी महका पर
महुआ बदनाम हो गया !
चैता भी कम नहीं है मादक पर
फगुआ बदनाम हो गया !
खन-खन करते रहे रात भर
कंगन जोरा-जोरी में
छन-छन करती रही पयलिया
प्यार की कौरा -कौरी में
बिछुआ क्या ठुनका आंगन में
अखरा कानों में सबके
कंगना खनका, पायल छनकी पर
बिछुआ बदनाम हो गया !
पुरवाई ने आँखें नम की
पछुआ ने भी दर्द दिया
यादों को दोनों ने लाकर
मन घायल बेचैन किया
दोनों ने ही दर्द दिए हैं
क्या पछुआ क्या पुरवाई
पुरवाई सरनाम हो गयी पर
पछुआ बदनाम हो गया !
चले तो थे सब अगुवाई में
मंजिल भी थी एक मगर,
अपनी-अपनी मनमानी में
भटक गये सब इधर- उधर
मंजिल नहीं मिली जब इनको
दोष मढ़ दिया ध्वज वाहक पर,
दोषी तो थे चलने वाले पर
अगुआ बदनाम हो गया !
चैता भी कम नहीं है मादक,पर
फगुआ बदनाम हो गया !

गीत; सर्वत जमाल ,बस्ती [उ.प्र.]

निरंतर सांझ करे श्रृंगार
निशा ने पहना चंदन हार ।
तिमिर किरणों ने बांधे हाथ
उजाला असमंजस में है
धराशायी हैं आदमकद
सफलता किसके बस में है
ठगे से देख रहें हैं सब
प्रलय का पल-प्रतिपल विस्तार।
निरंतर ----------------------------
सदाशयता का यह अपमान
विदेशी ठप्पे फसलों पर
गडी हैं गैरों की आँखें
सुरक्षा तक के मसलों पर
सूना है आने वाले हैं
यहाँ आयातित व्रत-त्यौहार ।
निरंतर -----------------------------
अहिल्या आतंकित भयभीत
चकित हैं जनक-दुलारी आज
खडाऊ फेंकी घूरे पर
भरत ने पहना शाही ताज
निराली कलियुग की है रीति
दशानन लेता है अवतार।
निरंतर -------------------------------

ग़ज़ल ;अलका मिश्रा ,लखनऊ {उ.प्र.}

तुमने जब-जब देना चाहा मुझको अपना प्यार दिया
और वक्त पड़ने पर तुमने मुझको ही दुत्कार दिया।

जाने कैसी आग लगी थी आज हमारे सीने में
एक अकिंचन के चरणों पर अपना सब कुछ वार दिया।

क्या करने को पुण्य करें हम, इतने कष्ट सहें क्यूँ कर
सुनते हैं ईश्वर ने पापी रावण तक को तार दिया।

प्रेम, धैर्य , मर्यादा, ममता , करुणा, साहस , त्याग
तुमने इन नाजुक कंधों पर कैसा - कैसा भार दिया।

रविवार, 22 मार्च 2009

कविता ; अलका मिश्रा ,गोरखपुर, [उ.प्र.]

इस
धूप की नई रंगत ने
मजबूर कर दिया है अब
सोचने पर
कि
फिजां बदलने लगी है
अब बदलना चाहिए हमें
अपना भी तौर-तरीका
खान-पान
रहन-सहन
आदतें
और
रवायतें भी
वक्त ;
आ गया है।

आज अपने भाई के जन्म दिन पर उसे प्यार के साथ
क्योंकि मैं उससे बहुत दूर हूँ.



ग़ज़ल ; के.के.सिंह मयंक अकबराबादी ,लखनऊ [उ.प्र.]

हो गया है मुझ से हर इक जाना-पहचाना अलग
देखकर हालत मेरी तुम भी न हो जाना अलग।

शम्मा से रह नहीं सकता है जब परवाना अलग
कैसे रह सकता है तुझसे तेरा दीवाना अलग ।

इस कदर वीरानगी है मयकदे में इन दिनों
जाम से मीना अलग है खुम से पैमाना अलग।

आप इन महलों को लेकर जायेंगे आख़िर कहाँ
हम बना लेंगे चमन में अपना काशाना अलग।

यूं तो वाबस्ता हैं दोनों जिंदगानी से मगर
उनका अफ़साना अलग है मेरा अफ़साना अलग।

मैं पीया करता हूँ अक्सर चश्मे-साकी से शराब
और रिन्दों से है मेरा जौके रिन्दाना अलग ।

एक रब्ते ख़ास है पीरे-मुगा से ऐ मयंक
हम बना सकते हैं वरना अपना मयखाना अलग।

गुरुवार, 19 मार्च 2009

गीत ;;सर्वत जमाल ,बस्ती [उ.प्र.]

अब मगर का भय नहीं है
कहीं कुछ संशय नहीं है
हर नदी हर ताल में बस
केकड़े ही केकड़े हैं
आप बाहर क्यों खड़े हैं?
......कल्पना से आकलन तक,
......लोग जा पहुंचे गगन तक
.....और हम सदियों पुरानी
......दास्तानों पर अडे हैं।
............मजहबी बीमारियों में
............समर की तैयारियों में
............ध्वंस की पकती फसल में
............सब बिजूका से गडे हैं।
..................... पथ सभी अवरुद्ध जैसे
.....................कुल विधर्मी युद्ध जैसे
..................आज घर ही में पितामह
.................बाण शैया पर पडे हैं॥

बुधवार, 18 मार्च 2009

गीत - कृष्ण कान्त झा ,लखनऊ [उ. प्र.]

मयखाने के अंदर की जब , मैंने सुनी कहानी।
मैं भी मित्रों के संग जाकर ,सुन पाया मय वाणी॥
सुरा -सुन्दरी बन जाती जब तक ही रूप दिखाती।
मदिरा ही अप्सरा रूप धर ,मानव -मन भरमाती।
मन भरमाकर के ही तो वह, करवाती नादानी।
मैं भी --------------------------------------॥

कोई तू-तू-मैं-मैं करके , शेर बना बैठा है।
कोई धर-धर मारो-मारो , बोल-बोल ऐठा है।
कोई अलमस्ती में नंगा , बन करता शैतानी।
मैं भी ------------------------------------॥

दींन यहाँ भी दुखिया सा ही पत्तल चाट रहा है।
पैसे वाला साथी को ही मुर्गा बाँट रहा है।
मयखाने में बाहर जैसी ,चलती है मनमानी।
मैं भी -----------------------------------॥

पीने वाला पीते-पीते , कल को भूल रहा है।
मय के चदते ही वह अपने बल को भूल रहा है ।
पी-पी कर के पीने वाला ,ख़ुद बनता है gyaani ।
मैं भी -------------------------------------॥

तन -धन की कमियों से ऊबा ,मयखाने जब आया।
मय में धन लुटवा कर भी तो ,उसने चैन न पाया।
मदिरा ने नागिन सी डंसा कर , दी उसको हैरानी।
मैं भी ----------------------------------------॥

सोमवार, 16 मार्च 2009

गीत -'नवाब' शाहाबादी ,लखनऊ, [उ.प्र.]

प्रेम लकीरें
प्रेम लकीरें कई एक थीं
मेरे हाथ में लेकिन
गहरी नहीं एक भी जिसको
मैं अपना कह पाता।

प्रेम डगर थी बडी सलोनी ,
मादक कलियाँ प्यार लिए,
खिली हुई थी क्यारी-क्यारी
मन भावन सिंगार किए,

लेकिन दृष्टि चुरा ली सबने
जब-जब मेरे चरण बढे
वरन-माल रह गया हाथ में
किसको मैं पहनाता!

अधर सिले के सिले
रह गये मूक सितारों जैसे ,
चलने को मैं चला हूँ लेकिन
थके कharoon जैसे,

कुछ पडाव ऐसे भी आए
जहाँ मिले कुछ साथी
मीत मिले पर वह न मिला
जिससे रिश्ता गहराता!

जीवन की इस संध्या में भी
चाह है कोई वरन करे,
मेरी टूटी सी kutiya men
koi radha charan dhre,

wrindawan ho jataa jiwan
mahaaraas phir rchataa
'geet-gowindam' ke geeton se
antarman bhar jataa.

prem lkiren kaii ek thin
mere hath men lekin
gahri nahin ek bhi jisko
main apna kah pataa!



रविवार, 15 मार्च 2009

घनाक्षरी ;सरस कपूर लखनऊ [उ.प्र.]

कुंदन की माल भाल बिंदी सजी लाल-लाल, मूंगा मौक्तियों से सजी नथ अभिराम है।
वरद करों में लाल चूडियाँ खनक रहीं ,गूंजे अनहद नाद धन्य धरा धाम है।
हो रहा तरंगित है प्यार का अगाध सिन्धु ,गोटेदार चुनरी की लालिमा ललाम है।
कौन न सराहे भाग्य माँ के चरणों में पड़ी, पायल जो प्रति -पल करती प्रणाम है।

शक्ति जग जाती जब जगती अखंड ज्योति ,भक्ति जन मानस विभोर कर देती है।
रस का अनंत स्रोत फूट पड़ता है,अम्ब ,प्रेम से रसा को सराबोर कर देती है।
ताकते नयन अपलक घनानंद झरें,डोलता ह्रदय मन मोर कर देती है।
रोम रोम रमता रमा के पद पंकजों में , परम प्रकाश पोर-पोर भर देती है।

रस ही विलीन होता जा रहा रसा का अम्ब, कामना है विश्व में न और खटपट हो।
कलम, कृपाण से अधिक उपयोगी बने, धैर्य,शील,सौम्यता का वास घट-घट हो।
तार-तार 'काव्य ' का सितार बन झंकृत हो,शान्ति बरसाए स्वरअक्षय सुबट हो।
कर दो कृपा माँ मम मानस मराल पर , हो कर सवार वीणावादिनी प्रकट हो।

माता यदि आपने संभाला नहीं होता मुझे ,कौडियों के मोल में भी कहीं नहीं बिकता।
weena हंसवाहिनी की झंकृत न होती यदि ,बदल न पाती मेरी हीन मानसिकता ।
साँस होती अस्थिर प्रपंच पे सवार होती ,जीवन का स्यंदन कहीं भी नहीं टिकता।
सिकता सी चेतना न रस का परस पाती ,'सरस 'बना न पाती रसा की रसिकता।

आपकी कृपा से सत्य होता उद्घाटित माँ ,मेरे उर -चक्षु को सदैव खोले रखना ।
अपना दुलार अम्ब देना भरपूर मुझे ,शब्द सीकरों में रस घोले-घोले रखना ।
और कुछ देना या न देना भाग्य में ,परन्तु ,भक्ति की अनंत निधि बिन तोले रखना।
कामना है गोद में तुम्हारी किलकारी भरु , लाड भरा हाथ मातु पोले-पोले रखना।






शनिवार, 14 मार्च 2009

गीत ;सर्वत जमाल , बस्ती ,[उ. प्र ]

सफेद बालों पर
उदास गालों पर
चमक दमक जागी।
दिशा अंधेरे की
लगन सवेरे की
सफर खुलेपन का
बयार घेरे थी
महानता कैसी
उठापटक जागी।
सफ़ेद ----------॥
विचार की बातें
बहार की बातें
गली -गली चर्चा
सुधार की बातें
जिधर किरन फूटी
नई सनक जागी ।
सफ़ेद -----------॥
अजीब ठहरे दिन
अवाक् बहरे दिन
जनक दुलारी के
गए सुनहरे दिन
नयन -नयन सपने
पलक पलक जागी ।
सफ़ेद ------------॥

ग़ज़ल ;एहसास मगहरी , गोरखपुर [उ. प्र]

मेरे दिल में अब वो समाने लगे है

मोहब्बत की दुनिया बसाने लगे हैं।

वो जब सामने मुस्कुराने लगे हैं

मेरे दिल पे बिजली गिराने लगे हैं।

ख्यालों में हरदम वो आने लगे हैं

मेरे दिल की दुनिया सजाने लगे हैं।

करीब उनके पहुंचे मोहब्बत में लेकिन

सफर में वहां तक जमाने लगे हैं।

हैं बेदर्द कितने जमाने के इन्सां

जो शमऐ मोहब्बत बुझाने लगे हैं।

मोहब्बत हुई है मुझे जब से उनसे

मुझे हर घडी वो सताने लगे हैं ।

मोहब्बत की तकमील काम आ गई है

की वो ख्वाब में आने जाने लगे हैं।

मिले हैं कभी जब सरे राह में वो

निगाहें वो मुझसे चुराने लगे हैं।

रकीबों में होती है एहसास चर्चा

ग़ज़ल तेरी दुश्मन भी गाने लगे हैं।

शुक्रवार, 13 मार्च 2009

ग़ज़ल ;ज्योति शेखर

जो पत्थर आ के लगता है मुझे पत्थर नहीं लगता
हैं इतने जख्म अब जख्मों से कोई डर नहीं लगता।
निकल जाता हूँ अपने जिस्म से अक्सर सफर पर मैं
मगर जब लौटता हूँ ,जिस्म अपना घर नहीं लगता।
मैं आत्मा हूँ ! नहीं हूँ जिस्म , जो पहचान लेता है
कोई कद उसको अपने जैसा कद्दावर नहीं लगता।
ये दुनिया सर झुकाती है फकीरों के मजारों पर
कोई भी मेला शाहों के मजारों पर नहीं लगता।
ये दुनिया ख़्वाब है और ख़्वाब को तो टूट जाना है
ख़जाने जोड़ते इन्सान को अक्सर नहीं लगता।
है मिटटी में ही सोना एक दिन ,हम इसीलिए प्यारे
जहाँ सोते हैं फूलों का कोई बिस्तर नहीं लगता।

ग़ज़ल :- सर्वत जमाल

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बुधवार, 11 मार्च 2009

गीत ;सर्वत जमाल

कोई मन को भा जाए चुन लेती हैं

आंखों का क्या है सपने बुन लेती हैं
लेकिन सपने केवल सपने होते हैं।
खाली कमरा चीजों से भर सकता है
कोई कितना दुःख हल्का कर सकता है
हमने बाहर भीतर से घर आंगन में
घायल होकर भी देखा है जीवन में
सारे दर्द अकेले सहने होते हैं
लेकिन सपने -------------।

पीडाओं की हद किस-किस को दिखलायें
आख़िर अपना कद किस-किस को दिखलायें
पौधा वृक्ष बनेगा ये आशा भी है
सबको फल पाने की अभिलाषा भी है
उनकी बात करो जो बौने होते हैं
लेकिन सपने --------------------------

क्या होता है बारहमासा क्या जाने
गर्मी जाड़ा धूप कुहासा क्या जाने
saari चिंता अख़बारों की खबरों पर
बैठे रहे किनारे कब थे लहरों पर
जिनके नाखून चिकने-चिकने होतe hain
लेकिन सपने --------------------------।





मंगलवार, 10 मार्च 2009

ग़ज़ल- के के वैश्य "कृष्ण"

जो भी अक्सर प्रयास करता है
परीक्षा वह ही पास करता है।
जिसमें जुट जाने की तमन्ना होती,
वह ही जीने की आस करता है।
चिन्तन करने की जो लग्न रखते ,
व्यक्ति ऐसा ही खास करता है।
अभी गिरा है तो कल दौडेगा ,
दिल को कहे उदास करता है।
कुछ भी होता है नहीं असंभव यहाँ ,
श्रम में जो विश्वास करता है।
कर्म करने की प्यास जो रखे,
वह ही खाली गिलास करता है।

गीत ; दुर्दिन में ---

दुर्दिन में यह नियति निगोडी ,जाने कहाँ चली जाती है
दो पाटों के बीच जिन्दगी ,अक्सर मित्र छली जाती है।
त्रिविध ताप को लिए हुए मन ;
पल-पल सौ -सौ रूप बदलता ।
आदि-अंत के संघर्षण में;
कभी फिसलता , कभी संभलता।
जाने-अनजाने कर जाता;
कितने ही वह कर्म निरर्थक।
सौ-सौ रूप बदलती तृष्णा - अंतर्ज्योति छली जाती है
दुर्दिन में -------------------------------------।
संबंधों के नियम निराले ;
कभी अंधेरे कभी उजाले।
व्यर्थ न कर आंखों के मोती;
अश्रु कणों के बोझ उठा ले ।
टूटे ख्वाब कहाँ जुड़ पाते ;
रातें कितनी सोनमदी हों।
सहज वेदनाओं की डोली ,अक्सर इसी गली आती है
दुर्दिन में -----------------------------------।
पाषारों के पंख निकलते;
और फिसलते पांव धूप के।
नागफनी की दाल चिरैया -
बुनती सपने रंग -रूप के।
दूर कहीं विश्वास अकेला,
पावों के छाले सहलाते।
मर्यादाएं रूप बदलतीं , तिल-तिल शाम !ढली जाती है
दुर्दिन में ------------------------------------
संकटा प्रसाद श्रीवास्तवा "बन्धुश्री "

गीत-२

  1. सम्मोहन के बदले अब लाचारी है
  2. आंखों में जाने कैसी बीमारी है ।
  3. अख़बारों में निविदा का विज्ञापन है
  4. आवंटन क्रम में थोड़ा परिवर्तन है।
  5. भाषा का मनुहार किसी खलनायक से
  6. क्या होता है स्वाति पूछो चातक से
  7. मण्डी की परिभाषा जबसे बदल गयी
  8. व्यापारी भी दीख रहे हैं ग्राहक से
  9. ठहरी हुई नदी के जल में कम्पन है
  10. आवंटन --------------!
  11. दस्तूरी दावत के खेल निराले थे
  12. अभिनंदन-स्वागत के खेल निराले थे
  13. ऊँच-नीच सब नारायण की इच्छा पर
  14. अनुमानित लागत के खेल निराले थे
  15. आज सभी की परछाई में कम्पन है
  16. आवंटन ------------!!
  17. तुमने सुना - सुनाया होगा बंटवारा
  18. हमने तो छूकर देखा hai अंगारा
  19. अफवाहों की जकडन में सारी दुनिया
  20. अब किस-किस को राह दिखाए ध्रुवतारा
  21. नव -युग में पाशार - काल का दर्शन है
  22. आवंटन ----------------!!!

सर्वत जमाल

रविवार, 8 मार्च 2009

गीत

हथेली देखता हूँ !पहेली देखता हूँ !!

सभी ने पर निकले

मगर हर पांव छाले

जुबां खुलती नहीं है

अधर पर बंद ताले

कुहासा बढ़ रहा है

अँधेरा चढ़ रहा है

यहाँ सूरज किरन भी , अकेली देखता हूँ !

हथेली ----------------------------! !

लगा है फिर अडंगा

हुआ इन्सान नंगा

नगर देहात बस्ती

सवेरे शाम दंगा

लगे फुफकारने सब

नजर के सामने अब

निराला खंडहर है , हवेली देखता हूँ !

हथेली ------------------------!!

घुटन स्वीकार है क्या

हवा बीमार है क्या

सुगन्धित वाटिका से

किसी को प्यार है क्या

नवेले आचरण से

निराले व्याकरण से

सफेदी भूल बैठी , चमेली देखता हूँ !

हथेली -------------------------!!

-------सर्वत जमाल

बुधवार, 4 मार्च 2009

parichya

इस ब्लॉग में समूचे देश के साहित्यकारों की रचनाएँ मिलेंगी ;
निम्न शीर्षक के अंतर्गत :----
कविताएँ ,गज़लें , व्यंग्य , गीत ,हास्य व्यंग्य , लेख ,कहानियाँ , आत्मकथा
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