शनिवार, 20 फ़रवरी 2010

गज़ल - सर्वत एम्.

आप सभी को पता होगा कि सर्वत साहब इन दिनों अपने ब्लॉग पर गजलें पोस्ट नहीं कर रहे हैं. मामला क्या है, यह तो वही जानें. मुझे अभी एक कवि गोष्ठी में शेर सुनाते मिल गए और मैं ने उन्हें लिख लिया. उनकी आज्ञा लिए बिना पोस्ट करने का साहस, नहीं दुस्साहस आपकी सेवा में प्रस्तुत है-

जो हम को थी, वो बीमारी लगी ना!
हंसी तुम को भी सिसकारी लगी ना!

सफर आसान है, तुम कह रहे थे 
कदम रखते ही दुश्वारी लगी ना!

कहा था, पेड़ बन जाना बुरा है 
बदन पर आज इक आरी लगी ना!

समन्दर ही पे उंगली उठ रही थी 
नदी भी इन दिनों खारी लगी ना!

मरे कितने, ये छोड़ो, यह बताओ
मदद लोगों को सरकारी लगी ना!

रविवार, 14 फ़रवरी 2010

नज़्म - सूर्य भानु गुप्त

हिंदी गजलों-नज्मों-कविताओं के फलक पर सूर्य भानु गुप्त एक बड़ा नाम है. हिंदी साहित्य से जरा भी रूचि रखने वाला पाठक इस नाम से अपिरिचित नहीं. लहजे की तल्खी और व्यंग्य के धार क्या होती है, यह रचना में देखें.

कुर्सियाने के नए तौर निकल आते हैं
अब तो लगता है किसी से न मरेगा रावण
एक सर काटिए सौ और निकल आते हैं.

ऐसा माहौल है, गोया न कभी लौटेंगे
उम्र भर क़ैद से छूटेंगी न अब सीता जी
राम लगता है अयोध्या में नहीं लौटेंगे.

इंतजार और अभी दोस्तों करना होगा
रामलीला जरा कलयुग में खिंचेगी लम्बी
लेकिन यह तय है कि रावण को तो मरना होगा.

शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2010

रमेश नारायण सक्सेना 'गुलशन ' बरेलवी

हद्दे-निगाह धूप सी बिखरी हुई लगी 
तेरे बगैर एक सज़ा ज़िन्दगी लगी 

सोचा था मैं ने हंस के गुजर जाऊँगा मगर 
चलने पे राह जीस्त की काँटों भरी लगी 

दुनिया हसीं है, इस की हर इक शय हसीं मगर 
दिल को भली लगी तो तेरी सादगी लगी 

उसका वजूद हो गया महसूस जिस घड़ी 
घर की हर एक चीज़ महकती हुई लगी 

कहते हैं लोग बेवफा उसको मगर मुझे 
कुछ अपने प्यार, अपनी वफा में कमी लगी 

जैसे कि शब के साथ जुडी रहती है सहर 
रंजो-खुशी में भी यूंही वाबस्तगी लगी 

तू यूं बसा हुआ है दिलो-जहन में मेरे 
जिस बज्म में गया, मुझे महफिल तेरी लगी 

नजरें चुरा के जाते उसे आज देख कर 
कदमों तले जमीन सरकती हुई लगी 

कैसी है, क्या है, जान भी पाया न मैं उसे 
हस्ती बस एक ख्वाब तो क्या ख्वाब सी लगी 

गुलशन वो जिस घड़ी से मेरे हमसफर हुए 
हर राह ज़िन्दगी की चमकती हुई लगी 

अलीगंज स्कीम-सेक्टर बी, लखनऊ.
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