बुधवार, 18 मार्च 2009

गीत - कृष्ण कान्त झा ,लखनऊ [उ. प्र.]

मयखाने के अंदर की जब , मैंने सुनी कहानी।
मैं भी मित्रों के संग जाकर ,सुन पाया मय वाणी॥
सुरा -सुन्दरी बन जाती जब तक ही रूप दिखाती।
मदिरा ही अप्सरा रूप धर ,मानव -मन भरमाती।
मन भरमाकर के ही तो वह, करवाती नादानी।
मैं भी --------------------------------------॥

कोई तू-तू-मैं-मैं करके , शेर बना बैठा है।
कोई धर-धर मारो-मारो , बोल-बोल ऐठा है।
कोई अलमस्ती में नंगा , बन करता शैतानी।
मैं भी ------------------------------------॥

दींन यहाँ भी दुखिया सा ही पत्तल चाट रहा है।
पैसे वाला साथी को ही मुर्गा बाँट रहा है।
मयखाने में बाहर जैसी ,चलती है मनमानी।
मैं भी -----------------------------------॥

पीने वाला पीते-पीते , कल को भूल रहा है।
मय के चदते ही वह अपने बल को भूल रहा है ।
पी-पी कर के पीने वाला ,ख़ुद बनता है gyaani ।
मैं भी -------------------------------------॥

तन -धन की कमियों से ऊबा ,मयखाने जब आया।
मय में धन लुटवा कर भी तो ,उसने चैन न पाया।
मदिरा ने नागिन सी डंसा कर , दी उसको हैरानी।
मैं भी ----------------------------------------॥

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