नींद आँखों में आज कम कम है
फिर वही रतजगों का मौसम है
दोस्ती, दिलदही, वफादारी
इन चिरागों की लौ भी मद्धम है
फूल मुरझा रहे हैं आरिज़ के
मेरी आँखों में थोड़ी शबनम है
कौन उठ कर गया है सहरा से
क्यों गज़ालों की आँख पुरनम है
जुल्फ-ए-हस्ती संवर न पायेगी
जुल्फ-ए-गेती बहुत ही बरहम है
दिन गुजरने तो दो कुछ और नफीस
वक्त सुनते हैं खुद भी मरहम है
सोमवार, 13 अप्रैल 2009
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