सोमवार, 11 मई 2009

ग़ज़ल: अंसार कम्बरी

धूप का जंगल , नंगे पांवों , एक बंजारा करता क्या
रेत के दरिया , रेत के झरने , प्यास का मारा करता क्या


बादल-बादल आग लगी थी , छाया तरसे छाया को
पत्ता-पत्ता सूख चुका था, पेड़ बेचारा करता क्या

सब उसके आँगन में अपनी राम कहानी कहते थे
बोल नहीं सकता था कुछ भी घर चौबारा करता क्या

तुमने चाहे चाँद-सितारे ,हमको मोती लाने थे
हम दोनों की राह अलग थी साथ तुम्हारा करता क्या

ये न तेरी और न मेरी ,दुनिया आनी-जानी है
तेरा - मेरा, इसका-उसका फ़िर बँटवारा करता क्या

टूट गये जब बंधन सारे और किनारे छूट गये
बीच भंवर में मैंने उसका नाम पुकारा ,करता क्या

ग़ज़ल ; राजेन्द्र तिवारी ,कानपुर

बिना लफ्जों का कोई कोई ख़त पढा क्या ?
मुहब्बत से , कभी पाला पडा क्या ?

अगर तुम प्यार का मतलब न समझे

तो सारी जिन्दगी तुमने पढा क्या ?


हमारा नाम है सबकी जबाँ पर

नया किस्सा ज़माने ने गढा क्या ?

अनहलक़ की सदायें गूँजती है
कोई मंसूर सूली पर चढ़ा क्या ?
ज़बानों से सफर तय हो रहा है
किसी का पाँव रस्ते पर बढ़ा क्या ?
कलम की बात है कद है कलम का
कलम वालों में फ़िर छोटा -बड़ा क्या ?
उसे हम आदमी समझे थे, लेकिन
वो सचमुच हो गया चिकना घडा क्या ?

तुम उसके नाम पर क्यों लड़ रहे हो
कभी अल्लाह , ईश्वर से लड़ा क्या ?





ग़ज़ल ; सत्य प्रकाश शर्मा

दूर कितने ,करीब कितने हैं

क्या बताएं रकीब कितने हैं


ये है फेहरिस्त जाँनिसारों की

तुम बताओ सलीब कितने हैं


तीरगी से तो दूर हैं लेकिन

रौशनी के करीब कितने हैं


कोई दिलकश सदा नहीं आती

कैद में अंदलीब कितने हैं


मैकशी पर बयान देना है

होश वाले अदीब कितने हैं


जिसको चाहें उसी से दूर रहें

ये सितम भी अजीब कितने हैं


अपनी खातिर नहीं कोई लम्हा

हम भी आख़िर गरीब कितने हैं

ग़ज़ल ; अंसार कम्बरी

किसी के ख़त का बहुत इन्तेज़ार करते हैं
हमारी छत पे कबूतर नहीं उतरते हैं


खुशी के , प्यार के , गुल के ,बहार के लम्हे
हमें मिले भी तो पल भर नहीं ठहरते हैं।
किसी तरफ से भी आओगे , हमको पाओगे
हमारे घर से सभी रास्ते गुज़रते हैं ।
ये जानता है समंदर में कूदने वाला
जो डूबते हैं , वही लोग फ़िर उभरते हैं।
कहीं फसाद , कहीं हादसा , कहीं दहशत
घरों से लोग निकलते हुए भी डरते हैं।
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