मंगलवार, 26 मई 2009

ग़जल,राजेन्द्र तिवारी

मेरी खामोशियों में भी फ़साना ढूँढ लेती है

बड़ी शातिर है ये दुनिया बहाना ढूढ़ लेती है

हकीकत जिद किए बैठी है चकनाचूर करने को

मगर हर आँख फ़िर सपना सुहाना ढूढ़ लेती है।

उठाती है जो ख़तरा हर कदम पर डूब जाने का

वही कोशिश समंदर में खजाना ढूढ़ लेती है ।

कमाई है न चिडिया की न कारोबार है कोई

वो केवल हौसले से आबो-दाना ढूढ़ लेती है ।

ये दुनिया मस्लहत 'मंसूर'की समझी नहीं अब तक

सलीबों पर जो हंसना-मुस्कुराना ढूढ़ लेती है ।

जुनूं मंजिल का राहों में बचाता है भटकने से

मेरी दीवानगी अपना ठिकाना ढूढ़ लेती है ।

ग़ज़ल ,सत्य प्रकाश शर्मा

बहस को करते हो क्यों इस कदर तवील मियाँ
हर एक बात की होती नहीं दलील मियाँ

अजब ये दौर है सब फाख्ता उडाते हैं
नहीं तो काम ये करते थे बस खलील मियाँ

हमें ये डर नहीं ,इज्ज़त मिले या रुसवाई
ये फिक्र है कि न एहसास हो जलील मियाँ

हुजूम तश्नालबों का है हर तरफ , लेकिन
दिखाई देती नहीं एक भी सबील मियाँ

सफ़ेद झूठ से सच हार जायेगा, तय है
बशर्ते ढूँढ लो शातिर कोई वकील मियाँ

हमारे जिस्म पे बेशक कोई खरोंच नहीं
हमारी रूह पे हैं बेशुमार नील मियाँ।
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