मंगलवार, 23 जून 2009

गजल - महशर बरेलवी , लखनऊ

भीख देता है मगर देता है एहसान के साथ
यह मजाक अच्छा है इन्सान का इन्सान के साथ


सिर्फ़ दो पल को मेरे लब पे हंसी आई है
कैसे दो पल ये गुजारूं नये मेहमान के साथ


कत्ल होने भी चला जाऊँगा हंसते हंसते
कोई देखे तो बुला कर मुझे सम्मान के साथ


तुझ से तो लाख गुना अच्छा है दाना दुश्मन
दोस्ती मैं नहीं करता किसी नादान के साथ


उनको अमवाजे-हवादिस से डराते क्यों हो
खेलते ही जो चले आए हैं तूफ़ान के साथ

मेरी किस्मत भी बदल देगा बदलने वाला
द्फ़्न हो जाऊंगा इक दिन इसी अरमान के साथ

दस्ते-वहशत की हुई अबके नवाजिश ऐसी
मेरा दामन भी गया मेरे गिरेबान के साथ

मैं भी घुट घुट के मरूं, यह मेरा शेवा ही नहीं
देख लेना कि मरूंगा मैं बड़ी शान के साथ

कौन जाने कि वो रहबर है कि रहजन महशर
कैसे चल दूँ मैं सफर को किसी अनजान के साथ
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