सोमवार, 16 मार्च 2009

गीत -'नवाब' शाहाबादी ,लखनऊ, [उ.प्र.]

प्रेम लकीरें
प्रेम लकीरें कई एक थीं
मेरे हाथ में लेकिन
गहरी नहीं एक भी जिसको
मैं अपना कह पाता।

प्रेम डगर थी बडी सलोनी ,
मादक कलियाँ प्यार लिए,
खिली हुई थी क्यारी-क्यारी
मन भावन सिंगार किए,

लेकिन दृष्टि चुरा ली सबने
जब-जब मेरे चरण बढे
वरन-माल रह गया हाथ में
किसको मैं पहनाता!

अधर सिले के सिले
रह गये मूक सितारों जैसे ,
चलने को मैं चला हूँ लेकिन
थके कharoon जैसे,

कुछ पडाव ऐसे भी आए
जहाँ मिले कुछ साथी
मीत मिले पर वह न मिला
जिससे रिश्ता गहराता!

जीवन की इस संध्या में भी
चाह है कोई वरन करे,
मेरी टूटी सी kutiya men
koi radha charan dhre,

wrindawan ho jataa jiwan
mahaaraas phir rchataa
'geet-gowindam' ke geeton se
antarman bhar jataa.

prem lkiren kaii ek thin
mere hath men lekin
gahri nahin ek bhi jisko
main apna kah pataa!



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