सोमवार, 27 अप्रैल 2009

गजल * राम प्रकाश 'बेखुद'

खूबियों को देखते हैं खामियां गिनते नहीं
आम खाने से है मतलब, गुठलियाँ गिनते नहीं

अपने अपने जिस्म की चोटों का रखते हैं हिसाब
हम कुचल देते हैं कितनी चींटियाँ, गिनते नहीं

सर पे इक मजदूर के ईंटें तो गिनते हैं मगर
जिस्म में कितनी हैं उसके हड्डियाँ, गिनते नहीं

जो खुदा कर दे अता रहते हैं उसमें मुत्म इन
अपने दस्तरख्वान की हम रोटियां गिनते नहीं

हो अगर गाढे पसीने की कमाई तो गिनें
मुफ्त में मिलती हैं जिनको गड्डियां, गिनते नहीं

रास्ता बाहर निकल जाने का करते हैं तलाश
बैठे बैठे हम कफस की तीलियाँ गिनते नहीं

अपने हक में उठने वाले हाथ गिनते हैं मगर
उठ रही हैं हम पे कितनी उँगलियाँ, गिनते नहीं

गजल * राम प्रकाश 'बेखुद'

न वो जबान की शोखी मेरे बयान में है
न अब वो हुस्ने समाअत किसी के कान में है

बदल न दे वो कहीं रुख तेरे सफीने का
वो मुख्तसर सा जो सूराख बादबान में है

ये कहके वार दुबारा किया है कातिल ने
जरा सी जान अभी इस लहूलुहान में है

मेरी पसंद की गुडिया नजर नहीं आती
सुना हर एक खिलौना तेरी दुकान में है

न जाने कैसे वो दिन काटता है बारिश में
वो जिस गरीब का घर दोस्तों ढलान में है

रहे वफा पे मेरे सिर्फ़ नक्शे पा ही नहीं
मेरा लहू भी मेरे पांव के निशान में है

न जाने कौन सी आंधी बिखेर दे बेखुद
हर एक शख्स यहाँ रेत के मकान में है
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