शुक्रवार, 4 दिसंबर 2009

गजल - नवाब शाहाबादी- लखनऊ

खिंची हैं गुलेलें यहाँ पत्थरों की
नहीं खैरियत कांच वाले घरों की

किया है पड़ोसी ने मजबूर इतना
कि फसलें उगानी पड़ीं खंजरों की

बहुत सुन चुके दौरे-हाज़िर के किस्से
चलो अब सुनें दास्तां मकबरों की

बुतों की परस्तिश हमेशा करेंगे
न आयेंगे चालों में हम काफिरों की

मशक्कत के फूलों से इसको सजाकर
चमनज़ार कर दो जमीं बंजरों की

बला की है दोनों तरफ भीड़ लेकिन
इधर खुदसरों की, उधर सरफिरों की

जिसे आप कहते हैं शहरे-निगाराँ
वो बस्ती है नव्वाब जादूगरों की
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