खिंची हैं गुलेलें यहाँ पत्थरों की
नहीं खैरियत कांच वाले घरों की
किया है पड़ोसी ने मजबूर इतना
कि फसलें उगानी पड़ीं खंजरों की
बहुत सुन चुके दौरे-हाज़िर के किस्से
चलो अब सुनें दास्तां मकबरों की
बुतों की परस्तिश हमेशा करेंगे
न आयेंगे चालों में हम काफिरों की
मशक्कत के फूलों से इसको सजाकर
चमनज़ार कर दो जमीं बंजरों की
बला की है दोनों तरफ भीड़ लेकिन
इधर खुदसरों की, उधर सरफिरों की
जिसे आप कहते हैं शहरे-निगाराँ
वो बस्ती है नव्वाब जादूगरों की
शुक्रवार, 4 दिसंबर 2009
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7 टिप्पणियां:
खिंची हैं गुलेलें यहाँ पत्थरों की
नहीं खैरियत कांच वाले घरों की
उम्दा गज़ल, बधाई
बहुत ही अच्छी गजल,सुंदर भाव.
बुतों की परस्तिश हमेशा करेंगे
न आयेंगे चालों में हम काफिरों की
बेमिसाल!
बहुत सुंदर भाव
बहुत कम शब्दों में कही गयी बहत गहरी बात
बहुत ही अच्छी गजल,सुंदर भाव.
बहुत खूब .जाने क्या क्या कह डाला इन चंद पंक्तियों में
संजय कुमार
हरियाणा
http://sanjaybhaskar.blogspot.com
बहुत खूब .जाने क्या क्या कह डाला इन चंद पंक्तियों में
संजय कुमार
हरियाणा
http://sanjaybhaskar.blogspot.com
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