गुरुवार, 30 अप्रैल 2009

२ गजलें

मंज़रुल हक 'मंजर' लखनवी
अ-८, गांधीनगर, खुर्रमनगर,
पिकनिक स्पॉट रोड, लखनऊ-२२६०२२

वक्त की धूप में झुलसे हैं बहुत
उतरे उतरे से जो चेहरे हैं बहुत

खौफ ने पांव पसारे हैं बहुत
सहमे सहमे हुए बच्चे हैं बहुत

इतनी मासूम है गुलशन की फिजा
साँस लेने में भी खतरे हैं बहुत

बेशकीमत हैं ये किरदार के फूल
जिंदगी भर जो महकते हैं बहुत

लुत्फ़ जीने में नहीं है कोई
लोग जीने को तो जीते हैं बहुत

मुत्तहिद हो गये पत्थर सारे
और आईने अकेले हैं बहुत

जो बुजुर्गों ने किए हैं रोशन
उन चिरागों में उजाले हैं बहुत

सब्र के घूँट बहुत तल्ख सही
फल मगर सब्र के मीठे हैं बहुत

सीख लो फूलों से जीना 'मंजर'
रह के काँटों में भी हँसते हैं बहुत
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तडपे, नाचे, रोए, गाए
दिल हर सांचे में ढल जाए

नाच हमें तिगनी का नचाए
किस्मत क्या क्या खेल दिखाए

खोलूँ जबां तो मेरी जबां पर
कैसे तेरा नाम न आए

आइना बनकर जीना जो चाहा
दुनिया ने पत्थर बरसाए

ऐसा जीना भी क्या जीना
अपनी धूप न अपने साए

इश्क-ओ-मुहब्बत के नगमे अब
कौन सुने और कौन सुनाए

लम्बी तान के सोने वाले
वक्त का पंछी उड़ता जाए

हम भी फूल हैं इस गुलशन के
हम से कोई खार न खाए

फिकरे - जहाँ सब छोड़ के 'मंजर'
अपनी धुन में गाता जाए

सोमवार, 27 अप्रैल 2009

गजल * राम प्रकाश 'बेखुद'

खूबियों को देखते हैं खामियां गिनते नहीं
आम खाने से है मतलब, गुठलियाँ गिनते नहीं

अपने अपने जिस्म की चोटों का रखते हैं हिसाब
हम कुचल देते हैं कितनी चींटियाँ, गिनते नहीं

सर पे इक मजदूर के ईंटें तो गिनते हैं मगर
जिस्म में कितनी हैं उसके हड्डियाँ, गिनते नहीं

जो खुदा कर दे अता रहते हैं उसमें मुत्म इन
अपने दस्तरख्वान की हम रोटियां गिनते नहीं

हो अगर गाढे पसीने की कमाई तो गिनें
मुफ्त में मिलती हैं जिनको गड्डियां, गिनते नहीं

रास्ता बाहर निकल जाने का करते हैं तलाश
बैठे बैठे हम कफस की तीलियाँ गिनते नहीं

अपने हक में उठने वाले हाथ गिनते हैं मगर
उठ रही हैं हम पे कितनी उँगलियाँ, गिनते नहीं

गजल * राम प्रकाश 'बेखुद'

न वो जबान की शोखी मेरे बयान में है
न अब वो हुस्ने समाअत किसी के कान में है

बदल न दे वो कहीं रुख तेरे सफीने का
वो मुख्तसर सा जो सूराख बादबान में है

ये कहके वार दुबारा किया है कातिल ने
जरा सी जान अभी इस लहूलुहान में है

मेरी पसंद की गुडिया नजर नहीं आती
सुना हर एक खिलौना तेरी दुकान में है

न जाने कैसे वो दिन काटता है बारिश में
वो जिस गरीब का घर दोस्तों ढलान में है

रहे वफा पे मेरे सिर्फ़ नक्शे पा ही नहीं
मेरा लहू भी मेरे पांव के निशान में है

न जाने कौन सी आंधी बिखेर दे बेखुद
हर एक शख्स यहाँ रेत के मकान में है

रविवार, 26 अप्रैल 2009

ग़ज़ल ;रमेश नारायण सक्सेना 'गुलशन बरेलवी' [उ.प्र.]

दोस्तों को छू लिया है दुश्मनों को छू लिया
किस्सा-ऐ -गम ने मेरे, सबके दिलों को छू लिया
घर के आँगन के शज़र ने जब फलों को छू लिया
गाँव के कुछ बालकों ने पत्थरों को छू लिया
क्या गुज़रती है दिलों पर उनसे यह पूछे कोई
मौत ने भूले से भी जिनके घरों को छू लिया
अज्म मुहकम हो अगर तो कुछ भी नामुमकिन नहीं
आबलापाई ने मेरी मंजिलों को छू लिया
ऐसा लगता है गये दिन फ़िर पलट कर आ गए
क्या मेरी ग़ज़लों ने फ़िर उनके लबों को छू लिया
कुर्बतें जब मांगने पर भी न हो पाई नसीब
हमने भी थक हार कर फ़िर मैकदों को छू लिया
दैर ही में उस को पाया और न काबे ही में जब
हम फकीरों ने बयाबाँ रास्तों को छू लिया
हम को उन में भी खुदा का अक्स आया है नजर
आस्था से हम ने गुलशन जिन बुतों को छू लिया।

शुक्रवार, 17 अप्रैल 2009

ग़ज़ल -एहसास मगहरी ,मगहर [उ.प्र.]

जो बात तुममें  थी  वो  बात  कहाँ  है
 पहले की तरह रस्मे मुलाकात कहाँ है.
          मायूसियों ने लूट लिया प्यार का वजूद
          अब मेरे मुकद्दर में   तेरी जात  कहाँ है.
भूले   से   तेरी याद मुझे  आती नहीं  है
वो प्यार,वो उल्फत,वही ज़ज्बात कहाँ है.
          जब हुस्न ही है इश्क  के आदाब से खमोश
         उल्फत में बता इश्क की अब मात कहाँ है.
एहसास तो मोमिन है मगर मुझको बता आज
तूफ़ान       बदामा    वो   तेरी   जात   कहाँ  है.
कवित्त ; भाषा अवधी
अरविन्द कुमार झा ,लखनऊ [उ.प्र.]
चली बात हमरी तौ,हमहू ई बोलि उठे
बातन मां जितिहौ न ,तुम तौ हौ बउआ .
           हमते न उडौ,लदौ-भिदौ जाय अतै  अब 
           छोटे ते पेंच हम,    लडावा  कनकउआ .
मुर्गा,तीतर, बटेर ,खूब हम ,लडावा है,                
खावा रेवडी, आम झउवन पे  झउआ.
             अदब ,लिहाज़ हमरे बाप  की बपौती है
             हमते करौ दोस्ती, हम हन लखनउआ.  

बुधवार, 15 अप्रैल 2009

घनाक्षरी ; 'नवाब' शाहाबादी ,लखनऊ  [उ.प्र.]
पीने या पिलाने को या मधुशाला जाने को भी,जब से किया है मैंने, आखिरी सलाम है
गली-गली कूचे-कुचे, लोग बार-बार पूछें, सचमुच पिए बिना कैसे कटे शाम है 
सच-सच बात यह पंथ मैंने सही चुना,जाहिद कि सीख पर किया नेक काम है
फिर भी न जाने लोग, कथन न माने लोग,सारे लखनऊ में नवाब बदनाम है.
 
जीवन है एक डार जिसमें है फूल-खार,कंटक चुभे तो कभी फूलों की जमात है 
कभी है शिशिर यह तो कभी बसंत बने,कभी नव पल्लव तो कभी गिरा पात है
कभी अनुकूल तो ये कभी प्रतिकूल लगे,शिशिर की धूप कभी पावस की रात है
सुख भी तो दुःख ही है जिसने ये जान लिया, जीवन उसी का प्रिय हुआ जलजात है?
 
शारदे की ऐसी कुछ कृपा हुई मुझ पर, रचने में लगा मैं भी नित्य नए गीत हूँ
शब्द-शक्ति उसकी है वाणी भी उसी की मित्र,फिर भी मनीषियों के बीच भयभीत हूँ
मनहर छंद का यह प्रथम प्रयास मेरा, ग़ज़ल रूबाई के मैं आज विपरीत हूँ
वर्णिक है छंद यह सुन लो नवाब तुम ,अच्छा हूँ या बुरा हूँ तुम्हारा मनमीत हूँ.
 
गोमती के तट पर बसा हुआ ये नगर, कवि सिरमौर और सिद्ध सरताज है
यहीं के सरस भी हैं यहीं के विकल जी हैं, मीर तकी मीर और अपना मजाज है
कहने को यूं तो प्रिय कई एक संगठन ,लेकिन दिलों में यहाँ 'चेतना' का राज है
जब-जब कोई कवि पढ़े यहाँ गीत छंद ,प्रमुदित होता सर्जकों का यह समाज है. 
   

घनाक्षरी ;जगदीश शुक्ल लखनऊ [उ.प्र.]

पुत्र प्राप्ति के प्रयास में जहाँ पे कई-कई ,पैदा हुई वहां तो विवाद बनी बेटियाँ
पुत्री में स्वरूप विंध्यवासिनी का दिखा जिन्हें ,वहां श्रद्धा-सुमन-प्रसाद बनी बेटियाँ
बड़े-बड़े कारनामे करके दिखाने लगीं ,छाप दाल युग हेतु याद बनी बेटियाँ
पिता को मुखाग्नि तक देने का निभा के धर्म,तोड़ के मिथक अपवाद बनी बेटियाँ।

बेटों संग पली-बढ़ी ,खेली-कूदी,बड़ी हुई ,पढ़-लिख कर शौर्यवान बनी बेटियाँ
गायन व वादन सी ललित कलाएं सीख,गृहकार्य दक्ष गुणवान बनी बेटियाँ
माता-पिता के लिए वे सबल सहारा बनी,सच्ची सेवा-धर्म का प्रमाण बनी बेटियाँ
धरती -गगन को भुजाओं में समेट कर ,सिन्धु नापने का अभियान बनी बेटियाँ।

व्याकुलता व्याप्त हुई चिंता की लकीरें खिंची ,जिन माता-पिता की सयानी हुई बेटियाँ
उन पर नज़रों के पहरे बिठाए गए ,कुल की प्रतिष्ठा की निशानी हुई बेटियाँ
ऊंचनीच जीवन का समझाया जाने लगा,परिवार की विचित्र प्राणी हुई बेटियाँ
वर मिला ब्याही गयीं,दोनों परिवारों बीच,स्नेह-संपदा की राजधानी हुई बेटियाँ।

नाज-नखरे सभी उठाते रहे माता-पिता ,पलको पे सदा ही बिठाई गई बेटियाँ
पाली और पोषी गई बड़े ही जतन से वे ,सुघर व निपुण बनाई गई बेटियाँ
पेट काट-काट कर दान व दहेज़ दे के ,नयनों से दूर भी बसाई गई बेटियाँ
किंतु जहाँ-जहाँ मिले लालची व फरेबी लोग, वहाँ-वहाँ घरों में जलाई गई बेटियाँ।

मंगलवार, 14 अप्रैल 2009

ग़ज़ल के. के. सिंह 'मयंक'

मुखालिफ दौरे हाज़िर की हवा है
चिरागे जीस्त फिर भी जल रहा है

जिन्हें औकात का मतलब सिखाया
वो कहते हैं तेरी औकात क्या है

न हल होगा कभी तुमसे ये वाइज़
निगाहो दिल का हजरत मस-अ-ला है

करम फरमाइए हम पर भी इक दिन
जहाँ वालो! हमारा भी खुदा है

है लहजा तो बहुत ही सख्त उसका
मगर वह आदमी दिल का भला है

मुझे कहती है क्यों दीवाना दुनिया
कोई बतलाओ मुझको क्या हुआ है

उसूलों की न कीजे बात हमसे
मुहब्बत जंग में सब कुछ रवा है

कहाँ ले आई है मुझको मुहब्बत
कोई हमदम न कोई हमनवा है

वो दिल लेकर करेगा बेवफाई
मयंक इतना तो हमको भी पता है

सोमवार, 13 अप्रैल 2009

ग़ज़ल -- नफीस गाजीपुरी

नींद आँखों में आज कम कम है
फिर वही रतजगों का मौसम है
दोस्ती, दिलदही, वफादारी
इन चिरागों की लौ भी मद्धम है
फूल मुरझा रहे हैं आरिज़ के
मेरी आँखों में थोड़ी शबनम है
कौन उठ कर गया है सहरा से
क्यों गज़ालों की आँख पुरनम है
जुल्फ-ए-हस्ती संवर न पायेगी
जुल्फ-ए-गेती बहुत ही बरहम है
दिन गुजरने तो दो कुछ और नफीस
वक्त सुनते हैं खुद भी मरहम है

शनिवार, 11 अप्रैल 2009

कवित्त : अरविन्द कुमार झा ,ऐशबाग ,लखनऊ[उ.प्र.]

एक नव वधू जब पति से ही पूछ बैठी
जीवन की निज कुछ बातें भी बतायेंगे ।
पति बोले अच्छा लगे या कि लगे तुम्हे बुरा
हम थे आवारा ये न आप से छिपाएंगे ।
प्रश्न अब पत्नी से किया है पतिदेव ने कि
शादी पूर्व आपने किया है क्या, बतायेंगे?
बोली फिर पत्नी कैसी पूछ-ताछ है ये अब
कहिये क्या शादी बाद कुंडली मिलायेंगे॥

ग़ज़ल ;भोलानाथ 'अधीर' प्रतापगढ़ ,[उ.प्र.]

मेरा हमराज वही मेरे मुकाबिल भी वही
मेरा रखवाला वही है मेरा कातिल भी वही
जिसने खतरे से खबरदार किया था मुझको
मेरी बर्बादी के आमाल में शामिल भी वही
मैंने जिसके लिए दरवाजे सभी बंद किए
क्या पता मेरे दिल में था दाखिल भी वही
छोड़कर गैर की महफ़िल मैं चला आया यहाँ
है यहाँ वैसा ही माहौल यह महफ़िल भी वही
सच तो यह है कि ' अधीर ' इस से रहा नावाकिफ
मेरा रस्ता भी वही है मेरी मंजिल भी वही ।

गीत ; संकटा पसाद श्रीवास्तवा 'बंधू श्री' करनैलगंज[उ.प्र.]

जाने क्यों हम खींच रहे हैं ,रोज लकीरें पानी पर
मुझको आती लाज आज है खुशबूदार जवानी पर।
रोज पालते घाव ह्रदय में,
और उन्हें सहलाते हैं
झूठ-सांच की मरहम पट्टी
से मन को बहलाते हैं
वंशज हैं राणा प्रताप के
और शिवाजी के शागिर्द

दाग लगाकर बैठ गये हम, वीरों की कुर्बानी पर
आती मुझको ----------------------------।
पीट-पीट कर ढोल सड़क पर
करते ता-ता-थैया रोज
डुबो रहे गांधी ,सुभाष औ
शेखर वाली नैया रोज
कभी अहिंसा,कभी शान्ति
तो कभी निपट भाई-चारा
सोच-सोच कर तंग आ चुके ,अपनी इस नादानी पर
आती मुझको------------------------------।
भले तिरंगा लहरायें हम
अम्बर की ऊंचाई तक
पटी न मुझसे छप्पन वर्षों
में कटुता की खाई तक
माना मेरी सैन्य -शक्ति से
सारा जग थर्राता है
फिर भी करते म्याऊँ -म्याऊँ चूहे की मनमानी पर
आती मुझको-------------------------------.

ग़ज़ल:के० के० सिंह मयंक अकबराबादी [उ.प्र.]

गीत बिना सूना है साज
बोलो क्या है इसका राज।
दुनिया तक क्यों पहुंची बात
जब तू था मेरा हमराज।
जिसका हो अंजाम बुरा
कौन करे उसका आगाज़।
हर मोमिन का फ़र्ज़ यही है
पाँच वक्त की पढ़े नमाज़।
इश्क ने चलकर राहे वफा में
हुस्न को बख्शा है एजाज़।
उनकी बज्म में लेकर पहुँची
मुझको तखैयुल की परवाज़।
अपनी ग़ज़ल में लाओ मयंक
मीरो-गालिब के अंदाज़।

शुक्रवार, 10 अप्रैल 2009

गीत;विजय प्रसाद त्रिपाठी [उ.प्र.]

महँगा राशन शासन ढीला ,ठंडा चूल्हा रिक्त पतीला

अट्टहास कर रही गरीबी बनकर धनिया ,गोबर शीला,

प्रेम चंद्र के इन पात्रों की दशा देखी जाती है

स्वर्ण वर्ष में आकर लज्जा आजादी को आती है

क्षुधित ,तृषित उदरों अधरों को रोटी नहीं , पानी है

गिरी कोठरी टूटा छप्पर उनकी यही निशानी है

दींहीनता को युग-युग से परी कथा क्या भाती है

स्वर्ण वर्ष -------------------------------------------

कभी गरीबी यहाँ मिटाने जो भी आगे आया है

सदा अमीरी का तलवा जिन्ह्वा से सहलाया है

अहं भावना छद्म सांत्वना तृप्ति नहीं दे पाती है

स्वर्ण वर्ष--------------------------------------

अपने भ्रम सीकर की मसि से भाग्य देश का लिखता आया

बनकर श्रमिक कभी स्वजनों का उदर नहीं जो भर पाया

वोटों की सौदेबाजी में सुरा उसे दी जाती है

स्वर्ण वर्ष--------------------------------------

घर-घर ऋद्धि-सिद्धि का डेरा राष्ट्रवाद का नारा है

अपनी कुंठित संतानों से भारत हरदम हाराहाई

आज चाँद पर बैठ मनुजता देखो अश्रु भाती है

स्वर्ण वर्ष-------------------------------------------

जो दिल्ली ने दिया हमें वह जाति-पांति धो डाले हम

सड़ा घिनौना लोकतंत्र ,कर शोभित,उसे सजालें

छुआ -छूत का कोढ़ मलिन मन माता का कर जाती है

swarn वर्ष ----------------------------------------

बुधवार, 8 अप्रैल 2009

`ग़ज़ल;एडवोकेट शरद मिश्रा ,लखनऊ,[उ.प्र.]

मन विवश हो क्रांति के उदगार गाता है
वक्त को भी अब यही अंदाज भाता है।

आग का विस्फोट अब रुकना असंभव है
धैर्य का अपना हिमालय डग मगाता है ।

मुस्कुराकर देख उसकी तरफ मत ऐसे
आसमाँ का चाँद भय से थरथराता है।

सभा चूहे करें कितनी भी मगर घंटी
कौन बिल्ली के गले में बाँध पाता है।

बात बिल्कुल झूठ हो पर अधर उनके हों
सच, हमारा हो भले,धोखा कहाता है ।

लट हटाना चाँद से कुछ जुल्म ऐसा है
जिन्दगी पर ज्यों फलक बिजली गिराता है।

मिल रहे जयचंद जाफर निकट मुकुटों के
अब मुझे 'गुजरा जमाना याद आता है।

गुरुवार, 2 अप्रैल 2009

ग़ज़ल ;एहसास मगहरी ;मगहर ,[उ.प्र.]

हर एक को जहान में प्यारी है जिन्दगी
लेकिन अमल बगैर कुंवारी है जिन्दगी।

हो के दीवाना काट दी हमने तो जिन्दगी
कैसे कहूं अकेले हमारी है जिन्दगी।

ये है खुदा की चीज कि जब चाहे छीन ले
तेरी है जिन्दगी न ये मेरी है जिन्दगी।

जौरो-सितम के बाद भी दामन बचा लिया
हमने सदा वफा में गुजारी है जिन्दगी ।

यूं ही नहीं खिले हैं ये दिल में मेरे गुलाब
तप-तप के हमने गम में संवारी है जिन्दगी।

जिसके लिए ये फूल हो , हो फूल दोस्तों
एहसास के लिए तो कटारी है जिन्दगी।

ग़ज़ल ज्योति शेखर लखनऊ [उ.प्र.]

हमारे इस मरुस्थल को समंदर देने वाले थे
महल उनका कहाँ है जो हमें घर देने वाले थे।

धुंआ बारूद का पी-पी के अंधी हो गयीं आँखें
जिन्हें तुम अम्न का रंगीन मंजर देने वाले थे।

मरा फुटपाथ पर जो उसका इक वारिस नहीं निकला
सुना था आप फुटपाथों को बिस्तर देने वाले थे।

वो जिनके होठ चारण हैं कलम यशगान है साथी
हुकूमत के ये चातक क्रान्ति को स्वर देने वाले थे।

ये तुम हो जिनकी खातिर ये वतन बस एक कुर्सी है
वो हम थे जो वतन के वास्ते सर देने वाले थे।

वो सूरज थे जो ख़ुद डूबे सियासत के अंधेरे में
वो हर घर में खुशी की रौशनी भर देने वाले थे।
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