बुधवार, 15 अप्रैल 2009

घनाक्षरी ; 'नवाब' शाहाबादी ,लखनऊ  [उ.प्र.]
पीने या पिलाने को या मधुशाला जाने को भी,जब से किया है मैंने, आखिरी सलाम है
गली-गली कूचे-कुचे, लोग बार-बार पूछें, सचमुच पिए बिना कैसे कटे शाम है 
सच-सच बात यह पंथ मैंने सही चुना,जाहिद कि सीख पर किया नेक काम है
फिर भी न जाने लोग, कथन न माने लोग,सारे लखनऊ में नवाब बदनाम है.
 
जीवन है एक डार जिसमें है फूल-खार,कंटक चुभे तो कभी फूलों की जमात है 
कभी है शिशिर यह तो कभी बसंत बने,कभी नव पल्लव तो कभी गिरा पात है
कभी अनुकूल तो ये कभी प्रतिकूल लगे,शिशिर की धूप कभी पावस की रात है
सुख भी तो दुःख ही है जिसने ये जान लिया, जीवन उसी का प्रिय हुआ जलजात है?
 
शारदे की ऐसी कुछ कृपा हुई मुझ पर, रचने में लगा मैं भी नित्य नए गीत हूँ
शब्द-शक्ति उसकी है वाणी भी उसी की मित्र,फिर भी मनीषियों के बीच भयभीत हूँ
मनहर छंद का यह प्रथम प्रयास मेरा, ग़ज़ल रूबाई के मैं आज विपरीत हूँ
वर्णिक है छंद यह सुन लो नवाब तुम ,अच्छा हूँ या बुरा हूँ तुम्हारा मनमीत हूँ.
 
गोमती के तट पर बसा हुआ ये नगर, कवि सिरमौर और सिद्ध सरताज है
यहीं के सरस भी हैं यहीं के विकल जी हैं, मीर तकी मीर और अपना मजाज है
कहने को यूं तो प्रिय कई एक संगठन ,लेकिन दिलों में यहाँ 'चेतना' का राज है
जब-जब कोई कवि पढ़े यहाँ गीत छंद ,प्रमुदित होता सर्जकों का यह समाज है. 
   

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