वो आँखों ही आँखों में मुझे तोल रहा है
लब उसके हैं खामोश मगर बोल रहा है .
मैं जानता हूँ हिर्सो-हवस हैं बुरे फिर भी
मैं देख रहा हूँ मेरा मन डोल रहा है .
अब देखो वो भी मुल्क पढ़ाता है हमें पाठ
जिसका न कुछ इतिहास न भूगोल रहा है
मुद्दत हुई है फिर भी तेरे प्यार का वो बोल
कानों में मेरे आज भी रस घोल रहा है
ईमान का तो मोल ही अब कुछ भी नहीं है
वैसे ये कभी मुल्क में अनमोल रहा है
शायद वो किसी और ही ग्रह का है निवासी
जो सबसे बड़े प्यार से हंस-बोल रहा है
गैरों के असर राजे-निहाँ मुझको बताकर
वो अपना ही खुद राजे-निहाँ खोल रहा है
सम्पर्क....२६८/४६/६६ डी, खजुहा, तकिया चाँद अली शाह, लखनऊ-२२६००४.
दूरभाष-- ०५२२-२२४१५८४ मोबाइल-- 09415928198
मंगलवार, 29 दिसंबर 2009
रविवार, 6 दिसंबर 2009
नज़्म - सर्वत जमाल
ये कब सोचा था हमने
उजाले दफन होंगे
अँधेरा ही बढेगा
अगर निकला भी सूरज
तो उसकी रोशनी पर
कोई बादल भी होगा।
हमारी फ़िक्र कुछ थी
मिला है और ही कुछ,
सवेरा रात जैसा
तो शामें दोपहर सी।
हम अपनी जिंदगी को
बुझी सी रोशनी को
कहाँ से ताजगी दें,
मिटायें तीरगी तो
ये मटमैले उजाले
ये सूरज, चाँद, तारे
सियासी जहन वाले
कहाँ तक साथ देंगे?
हमारे जहन में जब
गुलामी ही बसी है
तो फिर यह शोर क्यों है,
ये नारे, ये नज़ारे
ये उजले कपडों वाले
ये लहराते से परचम
ये कौमी धुन की सरगम
भला किसके लिए हैं?
सियासी ज़हन वालो
ये नाटक मत उछालो।
जरा सूरज की सोचो
अगर कुछ धूप हो तो
हम उसकी रोशनी में
उजाले दफन होंगे
अँधेरा ही बढेगा
अगर निकला भी सूरज
तो उसकी रोशनी पर
कोई बादल भी होगा।
हमारी फ़िक्र कुछ थी
मिला है और ही कुछ,
सवेरा रात जैसा
तो शामें दोपहर सी।
हम अपनी जिंदगी को
बुझी सी रोशनी को
कहाँ से ताजगी दें,
मिटायें तीरगी तो
ये मटमैले उजाले
ये सूरज, चाँद, तारे
सियासी जहन वाले
कहाँ तक साथ देंगे?
हमारे जहन में जब
गुलामी ही बसी है
तो फिर यह शोर क्यों है,
ये नारे, ये नज़ारे
ये उजले कपडों वाले
ये लहराते से परचम
ये कौमी धुन की सरगम
भला किसके लिए हैं?
सियासी ज़हन वालो
ये नाटक मत उछालो।
जरा सूरज की सोचो
अगर कुछ धूप हो तो
हम उसकी रोशनी में
गुलामी की नमी से
ठिठुरते इस बदन को
हरारत तो दिला दें।
मगर यह फ़िक्र अपनी
हमारे जहन तक है।
यहाँ होना वही है
किसी की कब चली है
उन्हीं का बोलबाला
हमारी जिंदगी क्या
हंसी क्या है खुशी क्या
पुरानी चादरों पर
कलफ फिर से चढी है।
इसी में आफियत है....
यही जम्हूरियत है.....
ठिठुरते इस बदन को
हरारत तो दिला दें।
मगर यह फ़िक्र अपनी
हमारे जहन तक है।
यहाँ होना वही है
किसी की कब चली है
उन्हीं का बोलबाला
हमारी जिंदगी क्या
हंसी क्या है खुशी क्या
पुरानी चादरों पर
कलफ फिर से चढी है।
इसी में आफियत है....
यही जम्हूरियत है.....
शुक्रवार, 4 दिसंबर 2009
गजल - नवाब शाहाबादी- लखनऊ
खिंची हैं गुलेलें यहाँ पत्थरों की
नहीं खैरियत कांच वाले घरों की
किया है पड़ोसी ने मजबूर इतना
कि फसलें उगानी पड़ीं खंजरों की
बहुत सुन चुके दौरे-हाज़िर के किस्से
चलो अब सुनें दास्तां मकबरों की
बुतों की परस्तिश हमेशा करेंगे
न आयेंगे चालों में हम काफिरों की
मशक्कत के फूलों से इसको सजाकर
चमनज़ार कर दो जमीं बंजरों की
बला की है दोनों तरफ भीड़ लेकिन
इधर खुदसरों की, उधर सरफिरों की
जिसे आप कहते हैं शहरे-निगाराँ
वो बस्ती है नव्वाब जादूगरों की
नहीं खैरियत कांच वाले घरों की
किया है पड़ोसी ने मजबूर इतना
कि फसलें उगानी पड़ीं खंजरों की
बहुत सुन चुके दौरे-हाज़िर के किस्से
चलो अब सुनें दास्तां मकबरों की
बुतों की परस्तिश हमेशा करेंगे
न आयेंगे चालों में हम काफिरों की
मशक्कत के फूलों से इसको सजाकर
चमनज़ार कर दो जमीं बंजरों की
बला की है दोनों तरफ भीड़ लेकिन
इधर खुदसरों की, उधर सरफिरों की
जिसे आप कहते हैं शहरे-निगाराँ
वो बस्ती है नव्वाब जादूगरों की
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