गज़ल की दुनिया में, बल्कि शायरी के संसार में संजय मिश्रा 'शौक़' वक जाना-पहचाना नाम है. पत्र-पत्रिकाओं में इनकी रचनाएँ-लेख प्रकाशित होते रहते हैं. संजय मिश्रा 'शौक़' नई पीढ़ी के उन गिने-चुने शायरों में एक हैं जिन्होंने शायरी के लिए न सिर्फ उर्दू सीखी बल्कि आज बहुत से नौजवान खुद उनसे उर्दू और शायरी की तालीम हासिल कर रहे हैं.
'साहित्य हिन्दुस्तानी' को फख्र है कि उनकी कुछ रचनाएँ दस्तयाब हो गई हैं, उनमे से एक गज़ल पेश है:
अजमतों के बोझ से घबरा गए
सर उठाया था कि ठोकर खा गए
ले तो आए हैं उन्हें हम राह पर
हाँ, मगर दांतों पसीने आ गए
भूख इतनी थी कि अपने जिस्म से
मांस खुद नोचा, चबाया, खा गए
कैदखाने से रिहाई यूं मिली
हौसले जंजीर को पिघला गए
बज गया नक्कारा-ए-फ़तहे-अजीम
जंग से हम लौट कर घर आ गए
इक नई उम्मीद के झोंके मेरे
पाँव के छालों को फिर सहला गए
उन बुतों में जान हम ने डाल दी
दश्ते-तन्हाई में जो पथरा गए.
छीन ली जब ख्वाहिशों की ज़िन्दगी
पाँव खुद चादर के अंदर आ गए
लखनऊ.
सेल- ०९४१५०५१९७३.
शनि राहु युति के परिणाम
2 दिन पहले