गुरुवार, 13 अगस्त 2009

गजल- मुश्ताक अहमद 'अर्श' चर्खार्वी

नजर से दिल में आ कर काटता है
हसीं चेहरे का मंजर काटता है

सुना है जब से उसका हाले-गुरबत
कोई अंदर ही अंदर काटता है

न जाने और कितने लख्त होंगे
कोई बाजू कोई सर काटता है

शहर से लौट तो आया वो लेकिन
उसे गाँव का मंजर काटता है

ये इन्सां है कि है खंजर से बदतर
बड़ी फितरत से मिल कर काटता है

रहे क्या वो चमन में फूल बन कर
यहाँ पत्थर को पत्थर काटता है

भला तुम को कहूं मैं कैसे अपना
मुझे मेरा मुकद्दर काटता है

ये घर की अर्श वीरानी न पूछो
भरा घर है मगर घर काटता है.
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