रविवार, 12 दिसंबर 2010

ग़ज़ल ; 'नवाब' शाहाबादी



हम भी जीने का कुछ मजा लेते
दो घड़ी काश मुस्कुरा लेते

अपना होता बहुत बुलंद इकबाल
हम गरीबों की जो दुआ लेते

जौके-रिंदी को हौसला देता
जाम बढ़कर अगर उठा लेते

रास आता चमन का जो माहौल 
आशियाँ फिर कहीं बना लेते

सबके होंटों पे बददुआए  थीं
किससे फिर जा के हम दुआ लेते

कुलफतें सारी दूर हो जाती
पास अपने जो तुम बुला लेते

गम जो उनका 'नवाब' गर मिलता 
अपने सीने से हम लगा लेते 

                     'नवाब' शाहाबादी 
                 १२६ ए , एच ब्लाक, साउथ सिटी, 
               लखनऊ .   Mb. 9831221614

मंगलवार, 9 नवंबर 2010

गुरेज़





ये संजय मिश्रा की नज़्म उन्हें मुबारकबाद देते हुए प्रकाशित कर रहे हैं .
मुबारकबाद दो उपलब्धियों के लिए-
१- इन्होने ब्लॉग जगत में अपनी धमाकेदार उपस्थिति निम्न उन्वान से जतायी है-
http://adbiichaupaal.blogspot.com/
2- संजय मिश्रा जी ने  अब कविताकोश में भी अपनी जगह बना ली है
_________________________________________________


फ़रेब देती है हमको दुनिया
 कदम कदम पर
हमें पता ही नहीं कि हमने
फ़रेब खाएं हैं कितने अब तक
ये रिश्ते-नातों का खोखलापन
यहाँ दिखावे की सब मुहब्बत
फ़रेब खा कर भी मुस्कुराती
है मसलेहत  की असीर बनकर
यूं ही जियेंगे  न जाने कब तक
हमारी आँखें कभी खुलेंगी? सवाल ये है
कि हमको अपनी खबर नहीं है
हमारी मुट्ठी से वक़्त पल-पल निकल रहा है 
कभी तो अपनी तरह से जीने का ढंग आए
हमारे जीवन में भी खूशी की उमंग आए
कि ये करिश्मा न खुद से होगा
सबील इसकी हमें ही करना पड़ेगी खुद से
जो मसलेहत से गुरेज़ करना भी आ गया तो
हमें बड़ा ही सुकून होगा 
हक़ीक़तों का करेंगे हम सामना भी डटकर
और आईने में
 हमें हमारी ही अपनी सूरत दिखाई देगी
हमें किसी से फ़रेब खाने की 
फिर ज़रुरत नहीं रहेगी!!! 

गुरुवार, 23 सितंबर 2010

मुहब्बतों का सुरूर

मैं अपनी आँखें न बंद कर लूं तो क्या करूं अब 
जहां भी देखो, जिधर भी देखो 
वहीं हैं दैरो-हरम के झगड़े.
जिसे भी देखो वो अपने मज़हब को सबसे ऊंचा बता रहा है 
वो दूसरों के गुनाह हमको गिना रहा है, सुना रहा है.
उसे ख़बर ही नहीं है शायद 
हर एक मज़हब के रास्ते की है एक मन्ज़िल
वो सबका मालिक जो एक है पर 
न जाने उसके हैं नाम कितने,
सब उसकी महिमा को जानते हैं 
मगर न मानेंगे इसकी कसमें उठाए फिरते हैं जाने कब से.
वही है दैरो-हरम का मालिक 
तो मिल्कियत का वही मुहाफ़िज़ हुआ यक़ीनन
मगर ये ऐसा खुला हुआ सच 
कोई न समझे तो क्या करें हम?
पढ़े-लिखे और कढ़े हुए सब 
इस एक नुकते पे अपनी आँखों को बंद करके उलझ रहे हैं.
ख़ुदा, ख़ुदा है, वो सब पे क़ादिर है जब तो फिर क्यों 
तमाम खल्के-ख़ुदा को शक है.
वो चाह ले तो तमाम दुनिया को एक पल में मिटा के रख दे 
मगर वो मखलूक के दिलों में 
मुहब्बतों के चराग़ रोशन किए हुए है.
हवस-परस्ती में रास्ते से भटक गए हैं जो चंद इन्सां
वही तो अपनी शिकस्त ख़ुर्दा अना की ज़िद में 
अड़े हुए हैं.
वो नफ़रतों की तमाम फ़सलों को खून देने में मुन्हमिक हैं 
उन्हें पता भी नहीं कि उनका ये कारे-बेजा 
हमारी नस्लों को उनके वरसे में जंग देगा
तमाम इंसानियत की चीख़ें सुनेंगे हम-तुम 
ज़मीं पे क़ह्तुर्रिज़ाल होगा.
सो, ऐसा मंजर कभी न आए 
ख़ुदा-ए-बरतर 
दुआ है तुझ से 
हवस-परस्तों के तंग दिल को वसीअ कर दे 
कुदूरतों को मिटा के उन में भी नूर भर दे 
मुहब्बतों का सुरूर भर दे, मुहब्बतों का सुरूर भर दे!


संजय मिश्रा 'शौक़', लखनऊ .





गुरुवार, 16 सितंबर 2010

घनाक्षरी : अरविन्द कुमार झा ,लखनऊ

          मुख रोटी जैसा गोल केश रंगे तारकोल,
मांग लगे जैसे बीच रोड पे दरार है .

         बिंदिया है चाँद तो मुंहासे हैं सितारे बने,
फिर भी निहारे आईना वो बार-बार है.

        लहसुन की कली से दाँत दिखें हँसे जब,
इसी मुस्कान पे तो मिलता उधार है.

         घुंघराली लट लटके है यूं ललाट पर,
जैसे टेलीफोन के रिसीवर का तार है

अरविन्द जी की किताब व्यंग्य  पंचामृत से ......

शुक्रवार, 13 अगस्त 2010

नज़्म

                                                                       पड़ाव
मैं ज़र्द पत्तों से
ज़िन्दगी का सबक़ न सीखूं तो क्या करूं अब?
ये मेरी फ़िक्री सलाहियत का इक इम्तेहां नहीं तो ये और क्या है?
ये ज़र्द पत्ते जो रास्ते में ज़मीं के तन पर पड़े हुए हैं,
ये ज़र्द पत्ते,
कभी शजर के जवां बदन पर सजे हुए थे, टंके हुए थे,
जवां उमंगों से, हसरतों से भरे हुए थे,
हवा के बहते हुए समन्दर में खेलते थे,
तमाम मौसम की सख्तियों में किलोल करते थे, झेलते थे.
बहार का हुस्न इनके लबों की जुंबिश पे मुन्हसिर था.
शुआ-ए-उम्मीद फड़क के इनकी
जवां उमंगों को अपने लहू से सींचती थी
और इनके जिस्मों की थरथराहट को अपने सीने में भींचती थी
मगर ये मौसम भी मेहमां था कुछ इक दिनों का.
बस एक मुद्दत के बाद ऐसा हुआ कि इक दिन
ये ज़र्द पत्ते, शजर के तन से जुदा हुए तो किसी ने दिल का न हाल पूछा
ज़मीं ने इनको गले लगाया, पनाह भी दी.
ये ज़र्द पत्ते
अब अपने अगले सफर से पहले पड़ाव में हैं.
                                                                                               संजय मिश्रा 'शौक़' 
                                                                                                ०९४१५०५१९७३




  

शुक्रवार, 23 जुलाई 2010

गज़ल

गज़ल की दुनिया में, बल्कि शायरी के संसार में संजय मिश्रा 'शौक़' वक जाना-पहचाना नाम है. पत्र-पत्रिकाओं में इनकी रचनाएँ-लेख प्रकाशित होते रहते हैं. संजय मिश्रा 'शौक़' नई पीढ़ी के उन गिने-चुने शायरों में एक हैं जिन्होंने शायरी के लिए न सिर्फ उर्दू सीखी बल्कि आज बहुत से नौजवान खुद उनसे उर्दू और शायरी की तालीम हासिल कर रहे हैं.
'साहित्य हिन्दुस्तानी' को फख्र है कि उनकी कुछ रचनाएँ दस्तयाब हो गई हैं, उनमे से एक गज़ल पेश है:


अजमतों के बोझ से घबरा गए 
सर उठाया था कि ठोकर  खा गए 


ले तो आए हैं उन्हें हम राह पर 
हाँ, मगर दांतों पसीने आ गए 


भूख इतनी थी कि अपने जिस्म से 
मांस खुद नोचा, चबाया, खा गए 


कैदखाने से रिहाई यूं मिली 
हौसले जंजीर को पिघला गए 


बज गया नक्कारा-ए-फ़तहे-अजीम 
जंग से हम लौट कर घर आ गए 


इक नई उम्मीद के झोंके मेरे 
पाँव के छालों को फिर सहला गए 


उन बुतों में जान हम ने डाल दी 
दश्ते-तन्हाई में जो पथरा गए.

छीन ली जब ख्वाहिशों की ज़िन्दगी
पाँव खुद चादर के अंदर आ गए 

लखनऊ.
 सेल- ०९४१५०५१९७३. 

शुक्रवार, 9 जुलाई 2010

के.के.सिंह 'मयंक'

गज़ल की दुनिया के लोग के.के.सिंह 'मयंक' से खूब वाकिफ हैं. देश ही नहीं, सात समन्दर पार तक मयंक जी की गजलें धूम मचा रही हैं. गज़ल के अलावा गीत, रुबाई, क़तआत, हम्द, नात, मनकबत, सलाम, भजन, दोहे पर भी आपकी अच्छी पकड़ है. अभी मयंक जी का एक नया रूप देखने को मिला. उन्होंने हास्य-व्यंग्य पर हाथ लगाया और कुछ रचनाएँ जन्म ले गईं. एक साहित्य हिन्दुस्तानी के हत्थे चढ़ गई जो यहाँ पेश है:

हुआ मंहगाई में गुम पाउडर, लाली नहीं मिलती
तभी तो मुझसे हंसकर मेरी घरवाली नहीं मिलती

ये बीवी की ही साजिश है कि जब ससुराल जाता हूँ
गले साला तो मिलता है मगर साली नहीं मिलती

मटन, मुर्गा, कलेजी, कोरमा अब भूल ही जाएँ
कि सौ रूपये में 'वेजीटेरियन थाली' नहीं मिलती

सभी पत्नी से घर के खाने की तारीफ़ करते हैं
कोई भी मेज़ होटल में मगर खाली नहीं मिलती

अगर पीना है सस्ती, फ़ौज में हो जाइए  भर्ती
वगरना दस रूपये में बाटली खाली नहीं मिलती

प्रदूषण से तुम अपने हुस्न को कैसे बचाओगे
यहाँ तो दूर तक पेड़ों की हरियाली नहीं मिलती

म्युनिस्पिलटी ने हम रिन्दों पे कैसा ज़ुल्म ढाया है
कि गिरने के लिए 'ओपन' कोई नाली नहीं मिलती

हुआ है जबसे भ्रष्टाचार, शिष्टाचार में शामिल
हमारे राजनेताओं में कंगाली नहीं मिलती

'मयंक' स्टेज पर गीतों-गज़ल अब कौन सुनता है
न हों रचनाओं में गर चुटकुले, ताली नहीं मिलती

रविवार, 27 जून 2010

आह चाचा! वाह चाचा!

खरोंच को भी बतलाते हैं घाव चाचा का,
बढ़ा दिया है भतीजों ने भाव चाचा का .

दिखाई देता नहीं उम्र का असर उन पर,
है मेन्टेन अभी रखरखाव चाचा का.

चचा तराजू नहीं डोलची के बैंगन हैं,
न जाने होगा किधर, कब झुकाव चाचा का. 

भतीजों को तो चचा जेब में धरे हैं मगर,
चची  पे पड़ता नहीं है प्रभाव चाचा का.

ये राज़ कोई भतीजा न जान पायेगा,
कहां पडेगा अब अगला पड़ाव चाचा का. 
   

रविवार, 6 जून 2010

चाचा को समर्पित एक और रचना

भतीजों के दिलों में है बड़ा सम्मान चाचा का
नहीं ले पाएगा कोई कभी स्थान चाचा का

न अब तक भूल पाए हम वो इक एहसान चाचा का
बहुत पहले कभी खाया था हम ने पान चाचा का

इन्हें महदूद मत करिए, चचा तो विश्वव्यापी हैं 
न हिंदुस्तान चाचा का, न पाकिस्तान चाचा का 

कोई दो चार सौ दे दे तो दीगर बात है वरना 
नहीं बिकता है दस या बीस में ईमान चाचा का 

यही दो-तीन फोटो और यही छह-सात लव लेटर 
पुलिस वालों को बस इतना मिला सामान चाचा का 

वो अपनी जेब में अरमानों की इक लिस्ट रखते हैं 
नहीं निकला है अब तक एक भी अरमान चाचा का 

चचा ग़ालिब भी माथा ठोंक लेंगे अपना जन्नत में 
अगर पढ़ने को मिल जाए उन्हें दीवान चाचा का  

शुक्रवार, 21 मई 2010

कविकुल के चाचा

इस गजल को आप तक पहुंचाने से पहले मुझे चाचा के बारे में आपको बताना पड़ेगा .कविकुल कानपुर की एक संस्था है ,जिसने बक-अप चाचा के नाम से एक गजल संग्रह प्रकाशित किया है ,इसकी भूमिका में इसके सम्पादक कृष्णा नन्द चौबे लिखते हैं ---इस संकलन के नायक चाचा ही क्यों हैं ? अगर इस पर गौर करें तो इसका कारण ये है कि चचा ग़ालिब से लेकर चाचा नेहरू और चाचा नेहरु से लेकर चाचा चौधरी तक हिन्दुस्तान में चाचाओं की एक परम्परा चली आ रही है .चाचा  को भतीजे पैदा करते हैं. भतीजों के बिना आदमी पिता तो क्या राष्ट्रपिता तक बन सकता है ,लेकिन चाचा नहीं हो सकता .
तो नायक चाचा के तीन भतीजों ने उन्हें गजलों में बाँधा है -वे हैं- श्री अंसार कंबरी ,सत्यप्रकाश शर्मा और राजेन्द्र तिवारी  
और चाचा के जलवे तो आजकल समीर लाल जी के यहाँ खूब दिखायी पड़ते हैं, सभी ब्लागर वाकिफ ही हैं .
आइये देखते हैं यहाँ चाचा का क्या हाल है- 

चचा हमको समझते हैं,चचा को हम समझते हैं
भतीजे हैं इसी से हम चचा का गम समझते हैं

ये दीगर बात है वो शायरी को कम समझते हैं,
कभी कुड़मुड़ समझते  हैं, कभी झइयम समझते हैं 

वो मिसरे को चबाकर उसकी चमड़ी खींच लेते हैं ,
कभी कम्पट,कभी टाफी ,कभी चिंगम समझते हैं 

चचा पहले थे हलवाई ,वही आदत अभी तक है ,
गजल को रसमलाई ,गीत को चमचम समझते हैं 

सियासत में चचा आये तो उसकी इक वजह ये है ,
इसे रोजी कमाने की वो इक तिकड़म समझते हैं.

मंगलवार, 20 अप्रैल 2010

गज़ल - अरविन्द 'असर'

फिल्मी धुन पर भजन सोचिए
कैसे लागे लगन सोचिए

गंगाजल है प्रदूषित बहुत
कैसे हो आचमन सोचिए

काँटों की तो है फितरत मगर
फूल से भी चुभन सोचिए

पाँव उठते नहीं बोझ से
आप मेरी थकन सोचिए

और जितने थे सब बच गए
बस जली है दुल्हन सोचिए

                                                                          २६८/४६/६६-डी, खजुहा,
                                                                           तकिया चाँद अली शाह,
                                                                            लखनऊ-२२६००४
                                                                             फोन- 09415928198

सोमवार, 5 अप्रैल 2010

गीत -शरद मिश्र 'सिन्धु'

मातृभूमि कातर नयनों से पल पल किसे निहारती
देशवासियों !बढ़ो कि देखो ,धरती तुम्हे पुकारती.
       जाति-पाति की राजनीति ने काटा-छाँटा बहुत सुनो
        मानवता के द्वय कपोल पर मारा चांटा बहुत सुनो
        यादव, कुर्मी, हरिजन, पंडित और मुराई, लोधी हों ,
        ठाकुर, लाला ,बनिया हो या किसी जाति के जो भी हों,
रहें प्रेम से सब मिलकर भारत माता मनुहारती .

       हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, पंथों को लड़वाते हैं 
        रक्तपिपासु भेड़िये तो सत्ताहित रक्त बहाते हैं 
        धर्म एक मानव का जिसमें रहें प्रेम से जन सारे 
       धर्म नहीं कहलाता जो आँखों में भरता अंगारे 
 व्यर्थ लड़ाने की मंशा विषधर बनकर फुंफकारती .

        तुमने अंग्रेजों से आजादी को छीना ,गर्व किया
        लाल बहादुर ,पन्त ,जवाहर ने अपना सर्वस्व दिया
        बलिदानों की परिपाटी में नाम तुम्हारा अमित रहा
        जन्मभूमि की रक्षाहित तो रक्त तुम्हारा सतत बहा
नित राजीव और गांधी दे रक्त,उतारें आरती.

        सागर की ड्योढी से कश्मीरी केसर की क्यारी तक
        असम और अरुणांचल के संग हँसे कच्छ की खाड़ी तक
        विन्ध्य, वैष्णव, मैहर की है शक्ति शिराओं -धमनी में
        नहीं दूसरा जो हो तुम सा उत्सर्गी इस अवनी में
श्याम, राम, शंकर की थाती जन-गन-मन को तारती .

         मानवता का परचम फहरे हो जय हो जय का जयगान
         सम्प्रदाय की विषबेलें ना करें कलंकित अब सम्मान
         हाथ पकड़ बढ़ चलें आज हम गली-गली में हो जयघोष 
         जय हो - जय हो से गुंजित हो दें नेतृत्व सजग निर्दोष 
 आज प्रकृति भारत माता का मंदिर सतत निखारती.
लखनउ
9415582926,
9794008047

शनिवार, 27 मार्च 2010

गजल -मंजरूल हक 'मंजर'लखनवी

वक्त की धूप में झुलसे हैं बहुत
उतरे उतरे से जो चेहरे हैं बहुत

खौफ ने पाँव पसारे हैं बहुत
सहमे सहमे हुए बच्चे हैं बहुत

इतनी मस्मूम है गुलशन की फजा
सांस लेने में भी खतरे हैं बहुत

बेशकीमती हैं ये किरदार के फूल
जिन्दगी भर जो महकते हैं बहुत

लुत्फ़ जीने में नहीं है कोई
लोग जीने को तो जीते हैं बहुत

मुत्तहिद हो गये पत्थर सारे
और आईने अकेले हैं बहुत

जो बुजुर्गों ने किये हैं रोशन
उन चरागों में उजाले हैं बहुत

सब्र के घूँट बहुत तल्ख़ सही
फल मगर सब्र के मीठे हैं बहुत

सीख लो फूलों से जीना मंजर
रह के काँटों में भी हँसते हैं बहुत

शनिवार, 20 फ़रवरी 2010

गज़ल - सर्वत एम्.

आप सभी को पता होगा कि सर्वत साहब इन दिनों अपने ब्लॉग पर गजलें पोस्ट नहीं कर रहे हैं. मामला क्या है, यह तो वही जानें. मुझे अभी एक कवि गोष्ठी में शेर सुनाते मिल गए और मैं ने उन्हें लिख लिया. उनकी आज्ञा लिए बिना पोस्ट करने का साहस, नहीं दुस्साहस आपकी सेवा में प्रस्तुत है-

जो हम को थी, वो बीमारी लगी ना!
हंसी तुम को भी सिसकारी लगी ना!

सफर आसान है, तुम कह रहे थे 
कदम रखते ही दुश्वारी लगी ना!

कहा था, पेड़ बन जाना बुरा है 
बदन पर आज इक आरी लगी ना!

समन्दर ही पे उंगली उठ रही थी 
नदी भी इन दिनों खारी लगी ना!

मरे कितने, ये छोड़ो, यह बताओ
मदद लोगों को सरकारी लगी ना!

रविवार, 14 फ़रवरी 2010

नज़्म - सूर्य भानु गुप्त

हिंदी गजलों-नज्मों-कविताओं के फलक पर सूर्य भानु गुप्त एक बड़ा नाम है. हिंदी साहित्य से जरा भी रूचि रखने वाला पाठक इस नाम से अपिरिचित नहीं. लहजे की तल्खी और व्यंग्य के धार क्या होती है, यह रचना में देखें.

कुर्सियाने के नए तौर निकल आते हैं
अब तो लगता है किसी से न मरेगा रावण
एक सर काटिए सौ और निकल आते हैं.

ऐसा माहौल है, गोया न कभी लौटेंगे
उम्र भर क़ैद से छूटेंगी न अब सीता जी
राम लगता है अयोध्या में नहीं लौटेंगे.

इंतजार और अभी दोस्तों करना होगा
रामलीला जरा कलयुग में खिंचेगी लम्बी
लेकिन यह तय है कि रावण को तो मरना होगा.

शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2010

रमेश नारायण सक्सेना 'गुलशन ' बरेलवी

हद्दे-निगाह धूप सी बिखरी हुई लगी 
तेरे बगैर एक सज़ा ज़िन्दगी लगी 

सोचा था मैं ने हंस के गुजर जाऊँगा मगर 
चलने पे राह जीस्त की काँटों भरी लगी 

दुनिया हसीं है, इस की हर इक शय हसीं मगर 
दिल को भली लगी तो तेरी सादगी लगी 

उसका वजूद हो गया महसूस जिस घड़ी 
घर की हर एक चीज़ महकती हुई लगी 

कहते हैं लोग बेवफा उसको मगर मुझे 
कुछ अपने प्यार, अपनी वफा में कमी लगी 

जैसे कि शब के साथ जुडी रहती है सहर 
रंजो-खुशी में भी यूंही वाबस्तगी लगी 

तू यूं बसा हुआ है दिलो-जहन में मेरे 
जिस बज्म में गया, मुझे महफिल तेरी लगी 

नजरें चुरा के जाते उसे आज देख कर 
कदमों तले जमीन सरकती हुई लगी 

कैसी है, क्या है, जान भी पाया न मैं उसे 
हस्ती बस एक ख्वाब तो क्या ख्वाब सी लगी 

गुलशन वो जिस घड़ी से मेरे हमसफर हुए 
हर राह ज़िन्दगी की चमकती हुई लगी 

अलीगंज स्कीम-सेक्टर बी, लखनऊ.

बुधवार, 27 जनवरी 2010

गजल - अरविन्द असर

अदालत तक कहाँ ये बात मेरे यार जाती है
कि अक्सर तर्क के आगे सचाई हार जाती है

वो अपने दौर की उपलब्धियां कुछ यूं गिनाते हैं
बड़े आराम से अब तो वहां तक कार जाती है

भले ऊपर ही ऊपर बेईमानी खूब फलती हो
मगर अंदर ही अंदर आदमी को मार जाती है

निभा पाया नहीं कोई इसे इक बार भी शायद
तिरंगे की कसम खाई मगर हर बार जाती है

वो अपराधीकरण पर बस यही इक बात कहते हैं
अगर उनकी न मानें तो मेरी सरकार जाती है

थपेड़े खाती रहती है मेरे विश्वास की नैया
कभी इस पार आती है, कभी उस पार जाती है

भला किस तरह पहुचेंगी वहां मजलूम की आहें
जहाँ तक सिर्फ पायल की 'असर' झंकार जाती है.

शुक्रवार, 8 जनवरी 2010

कविता- अलका मिश्रा

मैं पेड़ नहीं
शहर हूँ मैं
एक भरा पूरा शहर.
हजारों घर हैं परिंदों के,
इनकी चहचहाहट  के  सप्तम सुर भी.
हजारों कोटर हैं
गिलहरियों के,
इनकी चिक-चिक की मद्धम लय भी.
केचुओं और कीटों की
लाखों बांबियां
मेरी जड़ों में
और आठ-दस झूले 
अल्हड नवयौवनाओं के.
अब समझे
पेड़ नहीं,
शहर हूँ मैं,
जहां चलती है
बस एक ही सत्ता
प्रकृति की,
मेरी लाखों शाखाएँ
अरबों पत्ते,
संरक्षित व सुरक्षित करते हैं
लाखों-करोड़ों जीवन
पलते हैं अनगिनत सपने
मेरी शाखों पर,
फलती-फूलती हैं कई-कई पीढ़ियां
मेरी आगोश में.
मूक साक्षी हूँ मैं
पीढ़ियों के प्रेम-व्यापार का,
शर्म से झुकती पलकों का 
पत्ते बरसा कर सम्मान करता हूँ मैं.
मानसिक द्वंद से थका हुआ प्राणी 
विश्राम पाता है मेरी छाया तले,
उसकी आँखों में चलता हुआ 
भूत और वर्तमान का चलचित्र 
जाने क्यों मुझे द्रवित करता है. 
आकांक्षाओं व इच्छाओं का मूक दर्शक हूँ मैं, 
पक्षियों के सुर संगीत व अपनी शीतल हवा 
वार देता हूँ उन पर मैं 
उनका दुःख हर कर 
नवजीवन संचार का 
आखिर मैं भी तो 
एक अंग हूँ 
प्रकृति का.
भले ही शहर/गाँव/देश हूँ मैं. 
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