मुख रोटी जैसा गोल केश रंगे तारकोल,
मांग लगे जैसे बीच रोड पे दरार है .
बिंदिया है चाँद तो मुंहासे हैं सितारे बने,
फिर भी निहारे आईना वो बार-बार है.
लहसुन की कली से दाँत दिखें हँसे जब,
इसी मुस्कान पे तो मिलता उधार है.
घुंघराली लट लटके है यूं ललाट पर,
जैसे टेलीफोन के रिसीवर का तार है
अरविन्द जी की किताब व्यंग्य पंचामृत से ......
शनि राहु युति के परिणाम
2 दिन पहले
8 टिप्पणियां:
परम आदरणीया अलका दीदी
प्रणाम !
बहुत बढ़िया छंद पढ़वाने के लिए आभार !
अरविन्द कुमार जी की पूरी पुस्तक कहां मिलेगी पढ़ने को ?
उनका परिचय / मेल आई डी दे सकें तो कृपा होगी ।
शुभकामनाओं सहित
- राजेन्द्र स्वर्णकार
वाह क्या खूब है। रोचक। मज़ेदार।
बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
अलाउद्दीन के शासनकाल में सस्ता भारत-१, राजभाषा हिन्दी पर मनोज कुमार की प्रस्तुति, पधारें
अभिलाषा की तीव्रता एक समीक्षा आचार्य परशुराम राय, द्वारा “मनोज” पर, पढिए!
बहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
मशीन अनुवाद का विस्तार!, “राजभाषा हिन्दी” पर रेखा श्रीवास्तव की प्रस्तुति, पधारें
वाह अलका जी बहुत अच्छा परिचय दिया बिलकुल सर्वत भाई साहिब के व्यंग जैसा। अर्विन्द जी को शुभकामनायें।
घनाक्षरी का शिल्प तो बेहतरीन है ही विषय बहुत अच्छे चुने हैं । मेरी बधाई ।
बोहोत सुंदर व्यंग, ह्रदय से बधाई.
हिंदी साहित्य में एम.ए. के दिन याद आ गए।
घुंघराली लट लटके है यूं ललाट पर,
जैसे टेलीफोन के रिसीवर का तार है ...
वाह वाह ... मज़ा आ गया इस हास्य और पेरोडिनुमा लाइने पढ़ कर ....
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