पड़ाव
मैं ज़र्द पत्तों से
ज़िन्दगी का सबक़ न सीखूं तो क्या करूं अब?
ये मेरी फ़िक्री सलाहियत का इक इम्तेहां नहीं तो ये और क्या है?
ये ज़र्द पत्ते जो रास्ते में ज़मीं के तन पर पड़े हुए हैं,
ये ज़र्द पत्ते,
कभी शजर के जवां बदन पर सजे हुए थे, टंके हुए थे,
जवां उमंगों से, हसरतों से भरे हुए थे,
हवा के बहते हुए समन्दर में खेलते थे,
तमाम मौसम की सख्तियों में किलोल करते थे, झेलते थे.
बहार का हुस्न इनके लबों की जुंबिश पे मुन्हसिर था.
शुआ-ए-उम्मीद फड़क के इनकी
जवां उमंगों को अपने लहू से सींचती थी
और इनके जिस्मों की थरथराहट को अपने सीने में भींचती थी
मगर ये मौसम भी मेहमां था कुछ इक दिनों का.
बस एक मुद्दत के बाद ऐसा हुआ कि इक दिन
ये ज़र्द पत्ते, शजर के तन से जुदा हुए तो किसी ने दिल का न हाल पूछा
ज़मीं ने इनको गले लगाया, पनाह भी दी.
ये ज़र्द पत्ते
अब अपने अगले सफर से पहले पड़ाव में हैं.
संजय मिश्रा 'शौक़'
०९४१५०५१९७३
शनि राहु युति के परिणाम
3 दिन पहले
12 टिप्पणियां:
बहुत ख़ूब !
बेहद उम्दा !
शायर ने ज़िंदगी के फ़लसफ़े को जिस ख़ूबसूरती से रक़म किया है वो क़ाबिले तारीफ़ है
बहुत खूब! शानदार, बेमिशाल, बेहतरीन!
अच्छी नज़्म है.
लाजबाब नज़्म, संजय जी बधाई.
अलका जी आपको सुंदर रचनाओं से रूबरू करने के लिए धन्यबाद
बेहतरीन नज़म बधाई। स्वतन्त्रता दिवस की बधाई।
ये ज़र्द पत्ते, शजर के तन से जुदा हुए तो किसी ने दिल का न हाल पूछा
ज़मीं ने इनको गले लगाया, पनाह भी दी.
ये ज़र्द पत्ते
अब अपने अगले सफर से पहले पड़ाव में हैं....
ज़मीन माँ है ना ... इसलिए गले लगा लेती है सबको ....
बहुत ही अच्छी पंक्तियाँ हैं ...
सुश्री अलका जी!
अचानक आपके ब्लाग पर पहुँचना हो गया।
श्री संजय मिश्रा ’शौक’ की नज़्म पढ़वाने के लिए धन्यवाद! जीवन जीने से संबंधित अच्छा संदेश निहित है- इस रचना में।
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ज़र्द पत्तों के बाबत मेरा चिंतन इस मुक्तक में व्यक्त है....
रंग लाएगी किसानी।
यह धरा होगी सुहानी॥
आने वाली कोपलों का-
मैं बनूँगा खाद-पानी॥
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सद्भावी -डॉ० डंडा लखनवी
सचलभाष : 9336089753
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संजय मिश्रा जी के व्यक्तित्त्व की एक झलक इन नज्मों से मिलता है. बेहतरीन नज़्म पेश किया है आपने अलका जी. धन्यवाद.
Bahut Khoobsoorat Nazm hai !! :) :)
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