मन विवश हो क्रांति के उदगार गाता है
वक्त को भी अब यही अंदाज भाता है।
आग का विस्फोट अब रुकना असंभव है
धैर्य का अपना हिमालय डग मगाता है ।
मुस्कुराकर देख उसकी तरफ मत ऐसे
आसमाँ का चाँद भय से थरथराता है।
सभा चूहे करें कितनी भी मगर घंटी
कौन बिल्ली के गले में बाँध पाता है।
बात बिल्कुल झूठ हो पर अधर उनके हों
सच, हमारा हो भले,धोखा कहाता है ।
लट हटाना चाँद से कुछ जुल्म ऐसा है
जिन्दगी पर ज्यों फलक बिजली गिराता है।
मिल रहे जयचंद जाफर निकट मुकुटों के
अब मुझे 'गुजरा जमाना याद आता है।
बुधवार, 8 अप्रैल 2009
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