अदालत तक कहाँ ये बात मेरे यार जाती है
कि अक्सर तर्क के आगे सचाई हार जाती है
वो अपने दौर की उपलब्धियां कुछ यूं गिनाते हैं
बड़े आराम से अब तो वहां तक कार जाती है
भले ऊपर ही ऊपर बेईमानी खूब फलती हो
मगर अंदर ही अंदर आदमी को मार जाती है
निभा पाया नहीं कोई इसे इक बार भी शायद
तिरंगे की कसम खाई मगर हर बार जाती है
वो अपराधीकरण पर बस यही इक बात कहते हैं
अगर उनकी न मानें तो मेरी सरकार जाती है
थपेड़े खाती रहती है मेरे विश्वास की नैया
कभी इस पार आती है, कभी उस पार जाती है
भला किस तरह पहुचेंगी वहां मजलूम की आहें
जहाँ तक सिर्फ पायल की 'असर' झंकार जाती है.
बुधवार, 27 जनवरी 2010
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