बुधवार, 27 मई 2009

गजल , ज्योति शेखर ,उ.प्र

अब यहाँ पर कोई घर ऐसा नहीं है
हादसों के डर से जो सहमा नहीं है

आज फ़िर दंगा हुआ और उसका बेटा
अब तलक स्कूल से लौटा नहीं है ।

तुम कमीशन -जांच सब कुछ भूल जाते
तुमने नरसंहार को देखा नहीं है।

सब कहें ये हादसा ऐसे हुआ है
वो कहें ऐसा नहीं वैसा नहीं है।

उफ़ ये दिल है या अंधेरे बंद कमरे
कोई खिड़की कोई दरवाजा नहीं है।

सर से चुनर हाथ से बिछडे खिलौने
जिनका वहशत से कोई रिश्ता नहीं है।

देखकर माँ की नजर में सर्द दहशत
एक बच्चा देर से रोया नहीं है।

उजले भाषण -खाकी डंडे ,रंग ही रंग हैं
और बहता लाल रंग रुकता नहीं है।

किन फरिश्तों ने उसे कल बरगलाया
वो पडोसी तो मेरा ऐसा नहीं है।
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