कविता : अलका मिश्रा
जिन्दगी जीने की
कला सिखाना
भूल गये मुझे
मेरे बुजुर्ग !
मैंने देखा
लोगो ने बिछाए फूल
मेरी राहों में,
प्रफुल्लित थी मैं !
पहला कदम रखते ही
फूलों के नीचे
दहकते शोले मिले,
कदम वापस खींचना
मेरे स्वाभिमान को गंवारा नहीं था;
इस कदम ने
खींच दी तस्वीर यथार्थ की ,
दे दी ऎसी शक्ति
मेरी आँखों में
जो अब देख लेती हैं
परदे के पीछे का 'सच' .
हर कदम पर
लगता है
आ गया चक्रव्यूह का सातवाँ द्वार
जिसे नहीं सिखाया तोड़ना
मेरे बुजुर्गों ने मुझे
और मैं
हार जाउंगी अब !
किन्तु
वाह रे स्वाभिमान
जो हिम्मत नहीं हारता
जो नहीं स्वीकारता
कि मैं चक्रव्यूह में फंसी
' अभिमन्यु ' हूँ
जिस पर वार करते हुए
सातों महारथी
भूल जायेंगे युद्ध का धर्म .
एक बार पुनः
ललकारने लगता है
मेरे अन्दर का कृष्ण , मुझे
कि उठो ,
युद्ध करो !
और जीत लो
जिन्दगी का महाभारत .
पुनः
आँखों में ज्वाला भरे
आगे बढ़ते कदमों के साथ
सोचती हूँ मैं
कि
जिन्दगी जीने की
कला सिखाना
भूल गये मुझे
मेरे बुजुर्ग !