गुरुवार, 28 मई 2009

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कविता  :  अलका मिश्रा  

जिन्दगी जीने की
कला सिखाना 
भूल गये मुझे
मेरे बुजुर्ग !
     मैंने देखा 
     लोगो ने बिछाए फूल 
     मेरी राहों में,
     प्रफुल्लित थी मैं !
     पहला कदम रखते ही 
     फूलों के नीचे 
     दहकते शोले मिले,
     कदम वापस खींचना 
     मेरे स्वाभिमान को गंवारा नहीं था;
     इस कदम ने
     खींच दी तस्वीर यथार्थ की ,
      दे दी ऎसी शक्ति 
      मेरी आँखों में 
      जो अब देख लेती हैं 
      परदे के पीछे का 'सच' .
हर कदम पर
लगता है
आ गया चक्रव्यूह का सातवाँ द्वार
जिसे नहीं सिखाया तोड़ना
मेरे बुजुर्गों ने मुझे
और मैं
हार जाउंगी अब !
किन्तु
वाह रे स्वाभिमान
जो हिम्मत नहीं हारता 
जो नहीं स्वीकारता 
कि मैं चक्रव्यूह में फंसी 
' अभिमन्यु ' हूँ 
जिस पर वार करते हुए 
सातों महारथी 
भूल जायेंगे युद्ध का धर्म .
      एक बार पुनः 
      ललकारने लगता है 
      मेरे अन्दर का कृष्ण , मुझे
      कि उठो ,
      युद्ध करो !
      और जीत लो 
      जिन्दगी का महाभारत .
पुनः 
आँखों में ज्वाला भरे 
आगे बढ़ते कदमों के साथ 
सोचती हूँ मैं 
कि
जिन्दगी जीने की 
कला सिखाना
भूल गये मुझे 
मेरे बुजुर्ग !     
 
               


गज़ल ,के के सिंह ,मयंक

ऐसे पल का करो कयास
जिसमें न हो कोई भी दास

इश्को - मुहब्बत प्यार वफा
कब मुफलिस को आते रास

आओ मुझसे ले लो सीख
कहता है सबसे इतिहास

जिससे देश की हो पहचान
पहनेंगे हम वही लिबास

भीड़ को देख के लगता है
महलों से बेहतर वनवास

खारे जल का दरिया हूँ
कौन बुझाए मेरी प्यास

छत पर देख के उनको 'मयंक'
चाँद का होता है आभास ।

बुधवार, 27 मई 2009

गजल , ज्योति शेखर ,उ.प्र

अब यहाँ पर कोई घर ऐसा नहीं है
हादसों के डर से जो सहमा नहीं है

आज फ़िर दंगा हुआ और उसका बेटा
अब तलक स्कूल से लौटा नहीं है ।

तुम कमीशन -जांच सब कुछ भूल जाते
तुमने नरसंहार को देखा नहीं है।

सब कहें ये हादसा ऐसे हुआ है
वो कहें ऐसा नहीं वैसा नहीं है।

उफ़ ये दिल है या अंधेरे बंद कमरे
कोई खिड़की कोई दरवाजा नहीं है।

सर से चुनर हाथ से बिछडे खिलौने
जिनका वहशत से कोई रिश्ता नहीं है।

देखकर माँ की नजर में सर्द दहशत
एक बच्चा देर से रोया नहीं है।

उजले भाषण -खाकी डंडे ,रंग ही रंग हैं
और बहता लाल रंग रुकता नहीं है।

किन फरिश्तों ने उसे कल बरगलाया
वो पडोसी तो मेरा ऐसा नहीं है।

मंगलवार, 26 मई 2009

ग़जल,राजेन्द्र तिवारी

मेरी खामोशियों में भी फ़साना ढूँढ लेती है

बड़ी शातिर है ये दुनिया बहाना ढूढ़ लेती है

हकीकत जिद किए बैठी है चकनाचूर करने को

मगर हर आँख फ़िर सपना सुहाना ढूढ़ लेती है।

उठाती है जो ख़तरा हर कदम पर डूब जाने का

वही कोशिश समंदर में खजाना ढूढ़ लेती है ।

कमाई है न चिडिया की न कारोबार है कोई

वो केवल हौसले से आबो-दाना ढूढ़ लेती है ।

ये दुनिया मस्लहत 'मंसूर'की समझी नहीं अब तक

सलीबों पर जो हंसना-मुस्कुराना ढूढ़ लेती है ।

जुनूं मंजिल का राहों में बचाता है भटकने से

मेरी दीवानगी अपना ठिकाना ढूढ़ लेती है ।

ग़ज़ल ,सत्य प्रकाश शर्मा

बहस को करते हो क्यों इस कदर तवील मियाँ
हर एक बात की होती नहीं दलील मियाँ

अजब ये दौर है सब फाख्ता उडाते हैं
नहीं तो काम ये करते थे बस खलील मियाँ

हमें ये डर नहीं ,इज्ज़त मिले या रुसवाई
ये फिक्र है कि न एहसास हो जलील मियाँ

हुजूम तश्नालबों का है हर तरफ , लेकिन
दिखाई देती नहीं एक भी सबील मियाँ

सफ़ेद झूठ से सच हार जायेगा, तय है
बशर्ते ढूँढ लो शातिर कोई वकील मियाँ

हमारे जिस्म पे बेशक कोई खरोंच नहीं
हमारी रूह पे हैं बेशुमार नील मियाँ।

सोमवार, 11 मई 2009

ग़ज़ल: अंसार कम्बरी

धूप का जंगल , नंगे पांवों , एक बंजारा करता क्या
रेत के दरिया , रेत के झरने , प्यास का मारा करता क्या


बादल-बादल आग लगी थी , छाया तरसे छाया को
पत्ता-पत्ता सूख चुका था, पेड़ बेचारा करता क्या

सब उसके आँगन में अपनी राम कहानी कहते थे
बोल नहीं सकता था कुछ भी घर चौबारा करता क्या

तुमने चाहे चाँद-सितारे ,हमको मोती लाने थे
हम दोनों की राह अलग थी साथ तुम्हारा करता क्या

ये न तेरी और न मेरी ,दुनिया आनी-जानी है
तेरा - मेरा, इसका-उसका फ़िर बँटवारा करता क्या

टूट गये जब बंधन सारे और किनारे छूट गये
बीच भंवर में मैंने उसका नाम पुकारा ,करता क्या

ग़ज़ल ; राजेन्द्र तिवारी ,कानपुर

बिना लफ्जों का कोई कोई ख़त पढा क्या ?
मुहब्बत से , कभी पाला पडा क्या ?

अगर तुम प्यार का मतलब न समझे

तो सारी जिन्दगी तुमने पढा क्या ?


हमारा नाम है सबकी जबाँ पर

नया किस्सा ज़माने ने गढा क्या ?

अनहलक़ की सदायें गूँजती है
कोई मंसूर सूली पर चढ़ा क्या ?
ज़बानों से सफर तय हो रहा है
किसी का पाँव रस्ते पर बढ़ा क्या ?
कलम की बात है कद है कलम का
कलम वालों में फ़िर छोटा -बड़ा क्या ?
उसे हम आदमी समझे थे, लेकिन
वो सचमुच हो गया चिकना घडा क्या ?

तुम उसके नाम पर क्यों लड़ रहे हो
कभी अल्लाह , ईश्वर से लड़ा क्या ?





ग़ज़ल ; सत्य प्रकाश शर्मा

दूर कितने ,करीब कितने हैं

क्या बताएं रकीब कितने हैं


ये है फेहरिस्त जाँनिसारों की

तुम बताओ सलीब कितने हैं


तीरगी से तो दूर हैं लेकिन

रौशनी के करीब कितने हैं


कोई दिलकश सदा नहीं आती

कैद में अंदलीब कितने हैं


मैकशी पर बयान देना है

होश वाले अदीब कितने हैं


जिसको चाहें उसी से दूर रहें

ये सितम भी अजीब कितने हैं


अपनी खातिर नहीं कोई लम्हा

हम भी आख़िर गरीब कितने हैं

ग़ज़ल ; अंसार कम्बरी

किसी के ख़त का बहुत इन्तेज़ार करते हैं
हमारी छत पे कबूतर नहीं उतरते हैं


खुशी के , प्यार के , गुल के ,बहार के लम्हे
हमें मिले भी तो पल भर नहीं ठहरते हैं।
किसी तरफ से भी आओगे , हमको पाओगे
हमारे घर से सभी रास्ते गुज़रते हैं ।
ये जानता है समंदर में कूदने वाला
जो डूबते हैं , वही लोग फ़िर उभरते हैं।
कहीं फसाद , कहीं हादसा , कहीं दहशत
घरों से लोग निकलते हुए भी डरते हैं।

गुरुवार, 7 मई 2009

गजल ; सत्य प्रकाश शर्मा , कानपुर

सदियों की रवायत है जो बेकार न कर दें
दीवाने ,कहीं मरने से, इनकार न कर दें

इल्जाम न आ जाए कोई मेरी अना पर
एहबाब मेरा रास्ता हमवार न कर दें

इस खौफ से उठने नहीं देता वो कोई सर
हम ख्वाहिशें अपनी कहीं मीनार न कर दें

मुश्किल से बचाई है ये एहसास की दुनिया
इस दौर के रिश्ते इसे बाज़ार न कर दें

यह सोच के नजरें वो मिलाता ही नहीं है
आँखें कहीं जज्बात का इज़हार न कर दें

गजल ; अंसार कम्बरी ,कानपुर

आप कहते हैं दूषित है वातावरण
पहले देखें स्वयं अपना अंतःकरण

कितना संदिग्ध है आपका आचरण
रात इसकी शरण , प्रात उसकी शरण


आप सोते हैं सत्ता की मदिरा पिये
चाहते हैं कि होता रहे जागरण


फूल भी हैं यहाँ , शूल भी हैं यहाँ
देखना है कहाँ पर धरोगे चरण


आप सूरज को मुट्ठी में दाबे हुये
कर रहे हैं उजालों का पंजीकरण


शब्द हमको मिले ,अर्थ वो ले गये
न इधर व्याकरण, न उधर व्याकरण


लीक पर हम भी चलते मगर कम्बरी
कौन है ऐसा जिसका करें अनुसरण

गजल-- राजेन्द्र तिवारी, कानपुर

मंजिल पे पहुँचने का इरादा नहीं बदला
घबराए तो लेकिन कभी रस्ता नहीं बदला

गिरगिट की तरह रंग बदलते हैं यहाँ लोग
हमने तो कभी खेल में पाला नहीं बदला

है चाँद वही, चाँद की तासीर वही है
सूरज से जो मिलता है उजाला, नहीं बदला

कहते हैं अजी आप जमाने को बुरा क्यों
हम आप ही बदले हैं, जमाना नहीं बदला

खुदगर्जी में तब्दील हुए हैं सभी रिश्ते
है एक मुहब्बत का जो रिश्ता, नहीं बदला

बांहों में रहा चाँद हमारी ये सही है
किस्मत का मगर अपनी सितारा नहीं बदला

लफ्जों को बरतने का हुनर सीख रहा हूँ
लफ्फाजी नहीं की है तो लहजा नहीं बदला

कहते हैं मेरे चाहने वाले यही अक्सर
राजेन्द्र है वैसा ही, जरा सा नहीं बदला

मंगलवार, 5 मई 2009

गीत ; सर्वत ज़माल

हम में बस यह अनुशासन है
चलते ही रहना जीवन है
तेज़ हवाएं क्या होती हैं
गर्म शिलाएं क्या होती हैं

वह क्या छान सकेंगे जंगल
जिनके पाँव तले है मखमल
हमसे पूछो जीवन गाथा
दंत कथाएं क्या होती हैं

पछुआ या पुरवाई कैसी
मरने में कठिनाई कैसी
चिंता ही इस युग में विष है
विष - कन्याएं क्या होती हैं

हक - अधिकार जताना सीखो
अब हथियार उठाना सीखो
हाथ बढाकर छीनो रोटी
मर्यादाएं क्या होती हैं ?

सोमवार, 4 मई 2009

ग़ज़ल -के० के० सिंह मयंक

आपका ये फरमाना झूठ
मुझसे है याराना , झूठ
दुनिया झूठ , जमाना झूठ
जग का ताना -बना झूठ
सच का साथ न हम छोडेंगे
बोले लाख जमाना झूठ
सुन के हकीक़त प्यार से बोले
प्यार का है अफसाना जूठ
मुल्क में हरसू खुशहाली है
खूब है ये शाहाना झूठ
ये तो काम है फरजानों का
क्या जाने दीवाना झूठ
मैंखारों से बोल रहा है
क्यों मीरे मैखाना झूठ
ऐ मयंक मरते मर जाना
होंठो पर मत लाना झूठ।




शनिवार, 2 मई 2009

गीत ; सर्वत जमाल
धुंध और कुहरे से
आँखें बेहाल हैं
बेपनाह कचरे से .

नियमों के पालन में
यहाँ-वहां ढील है
चूजों की रक्षा को
प्रहरी अब चील है
राजा से मंत्री से
खौफ नहीं अब कोई
जनता को ख़तरा है
अब केवल मुहरे से .

पछुआ के झोंके से
होंट फटे जाते हैं
फर्नीचर बनने को
पेड़ कटे जाते हैं
नदियों में पानी का
तल नीचे आ पहुंचा
सागर भी लगते हैं
अब ठहरे -ठहरे से.

शुक्रवार, 1 मई 2009

कविता ;इष्ट देव सांकृत्यायन ,
पूरब से
आती है
या
 आती है
पश्चिम से
एक किरण
सूरज की
दिखती है
इन आँखों में
 
मैं संकल्पित
जान्हवी से
कन्धों पर है
काँवर
आना चाहो
तो
आ जाना
तुम स्वयं 
विवर्त से बाहर 
 
तुमको ढूँढू
मंजरियों में 
तो
पाऊँ शाखों में
इन आँखों में 
 
सपने जैसा 
शील तुम्हारा 
और ख्यालों सा 
रूप
पानी जीने वाली 
मछली ही
पी  पाती है
धूप
 
तुम तो 
बस तुम ही हो
किंचित उपमेय नहीं
कैसे गिन लूँ
तुमको
मैं लाखों में 
इन आँखों में.   
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