मेरी खामोशियों में भी फ़साना ढूँढ लेती है
बड़ी शातिर है ये दुनिया बहाना ढूढ़ लेती है।
हकीकत जिद किए बैठी है चकनाचूर करने को
मगर हर आँख फ़िर सपना सुहाना ढूढ़ लेती है।
उठाती है जो ख़तरा हर कदम पर डूब जाने का
वही कोशिश समंदर में खजाना ढूढ़ लेती है ।
कमाई है न चिडिया की न कारोबार है कोई
वो केवल हौसले से आबो-दाना ढूढ़ लेती है ।
ये दुनिया मस्लहत 'मंसूर'की समझी नहीं अब तक
सलीबों पर जो हंसना-मुस्कुराना ढूढ़ लेती है ।
जुनूं मंजिल का राहों में बचाता है भटकने से
मेरी दीवानगी अपना ठिकाना ढूढ़ लेती है ।
1 टिप्पणी:
शुरुआती पंक्ति का यथार्थ बड़ा मर्मस्पर्शी है .......बहुत अच्छा लगा .............धन्यवाद ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
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