कवित्त ; भाषा अवधी
अरविन्द कुमार झा ,लखनऊ [उ.प्र.]
चली बात हमरी तौ,हमहू ई बोलि उठे
बातन मां जितिहौ न ,तुम तौ हौ बउआ .
हमते न उडौ,लदौ-भिदौ जाय अतै अब
छोटे ते पेंच हम, लडावा कनकउआ .
मुर्गा,तीतर, बटेर ,खूब हम ,लडावा है,
खावा रेवडी, आम झउवन पे झउआ.
अदब ,लिहाज़ हमरे बाप की बपौती है
हमते करौ दोस्ती, हम हन लखनउआ.
2 टिप्पणियां:
कवित्त जीवित रहे तो संस्कृति की आस बची रहेगी
बहुत बढिया!!
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