शुक्रवार, 10 अप्रैल 2009

गीत;विजय प्रसाद त्रिपाठी [उ.प्र.]

महँगा राशन शासन ढीला ,ठंडा चूल्हा रिक्त पतीला

अट्टहास कर रही गरीबी बनकर धनिया ,गोबर शीला,

प्रेम चंद्र के इन पात्रों की दशा देखी जाती है

स्वर्ण वर्ष में आकर लज्जा आजादी को आती है

क्षुधित ,तृषित उदरों अधरों को रोटी नहीं , पानी है

गिरी कोठरी टूटा छप्पर उनकी यही निशानी है

दींहीनता को युग-युग से परी कथा क्या भाती है

स्वर्ण वर्ष -------------------------------------------

कभी गरीबी यहाँ मिटाने जो भी आगे आया है

सदा अमीरी का तलवा जिन्ह्वा से सहलाया है

अहं भावना छद्म सांत्वना तृप्ति नहीं दे पाती है

स्वर्ण वर्ष--------------------------------------

अपने भ्रम सीकर की मसि से भाग्य देश का लिखता आया

बनकर श्रमिक कभी स्वजनों का उदर नहीं जो भर पाया

वोटों की सौदेबाजी में सुरा उसे दी जाती है

स्वर्ण वर्ष--------------------------------------

घर-घर ऋद्धि-सिद्धि का डेरा राष्ट्रवाद का नारा है

अपनी कुंठित संतानों से भारत हरदम हाराहाई

आज चाँद पर बैठ मनुजता देखो अश्रु भाती है

स्वर्ण वर्ष-------------------------------------------

जो दिल्ली ने दिया हमें वह जाति-पांति धो डाले हम

सड़ा घिनौना लोकतंत्र ,कर शोभित,उसे सजालें

छुआ -छूत का कोढ़ मलिन मन माता का कर जाती है

swarn वर्ष ----------------------------------------

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