मंगलवार, 14 अप्रैल 2009

ग़ज़ल के. के. सिंह 'मयंक'

मुखालिफ दौरे हाज़िर की हवा है
चिरागे जीस्त फिर भी जल रहा है

जिन्हें औकात का मतलब सिखाया
वो कहते हैं तेरी औकात क्या है

न हल होगा कभी तुमसे ये वाइज़
निगाहो दिल का हजरत मस-अ-ला है

करम फरमाइए हम पर भी इक दिन
जहाँ वालो! हमारा भी खुदा है

है लहजा तो बहुत ही सख्त उसका
मगर वह आदमी दिल का भला है

मुझे कहती है क्यों दीवाना दुनिया
कोई बतलाओ मुझको क्या हुआ है

उसूलों की न कीजे बात हमसे
मुहब्बत जंग में सब कुछ रवा है

कहाँ ले आई है मुझको मुहब्बत
कोई हमदम न कोई हमनवा है

वो दिल लेकर करेगा बेवफाई
मयंक इतना तो हमको भी पता है

1 टिप्पणी:

प्रशांत भगत ने कहा…

tauba tauba hamri tauba hum kaise kar sakte hai mulyankan aapki baudhik chamata ka . mai hee kya shaayad koi nahee kar sakata, kyunki jo dil me hota hai usake liye sateek shabd hee nahee milate hai . jadatar to banawati ho jata hai .

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