शुक्रवार, 4 दिसंबर 2009

गजल - नवाब शाहाबादी- लखनऊ

खिंची हैं गुलेलें यहाँ पत्थरों की
नहीं खैरियत कांच वाले घरों की

किया है पड़ोसी ने मजबूर इतना
कि फसलें उगानी पड़ीं खंजरों की

बहुत सुन चुके दौरे-हाज़िर के किस्से
चलो अब सुनें दास्तां मकबरों की

बुतों की परस्तिश हमेशा करेंगे
न आयेंगे चालों में हम काफिरों की

मशक्कत के फूलों से इसको सजाकर
चमनज़ार कर दो जमीं बंजरों की

बला की है दोनों तरफ भीड़ लेकिन
इधर खुदसरों की, उधर सरफिरों की

जिसे आप कहते हैं शहरे-निगाराँ
वो बस्ती है नव्वाब जादूगरों की

7 टिप्‍पणियां:

अजय कुमार ने कहा…

खिंची हैं गुलेलें यहाँ पत्थरों की
नहीं खैरियत कांच वाले घरों की

उम्दा गज़ल, बधाई

राज भाटिय़ा ने कहा…

बहुत ही अच्छी गजल,सुंदर भाव.

Smart Indian ने कहा…

बुतों की परस्तिश हमेशा करेंगे
न आयेंगे चालों में हम काफिरों की

बेमिसाल!

रचना दीक्षित ने कहा…

बहुत सुंदर भाव
बहुत कम शब्दों में कही गयी बहत गहरी बात

संजय भास्‍कर ने कहा…

बहुत ही अच्छी गजल,सुंदर भाव.

संजय भास्‍कर ने कहा…

बहुत खूब .जाने क्या क्या कह डाला इन चंद पंक्तियों में

संजय कुमार
हरियाणा
http://sanjaybhaskar.blogspot.com

संजय भास्‍कर ने कहा…

बहुत खूब .जाने क्या क्या कह डाला इन चंद पंक्तियों में

संजय कुमार
हरियाणा
http://sanjaybhaskar.blogspot.com

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