मंगलवार, 10 मार्च 2009

गीत ; दुर्दिन में ---

दुर्दिन में यह नियति निगोडी ,जाने कहाँ चली जाती है
दो पाटों के बीच जिन्दगी ,अक्सर मित्र छली जाती है।
त्रिविध ताप को लिए हुए मन ;
पल-पल सौ -सौ रूप बदलता ।
आदि-अंत के संघर्षण में;
कभी फिसलता , कभी संभलता।
जाने-अनजाने कर जाता;
कितने ही वह कर्म निरर्थक।
सौ-सौ रूप बदलती तृष्णा - अंतर्ज्योति छली जाती है
दुर्दिन में -------------------------------------।
संबंधों के नियम निराले ;
कभी अंधेरे कभी उजाले।
व्यर्थ न कर आंखों के मोती;
अश्रु कणों के बोझ उठा ले ।
टूटे ख्वाब कहाँ जुड़ पाते ;
रातें कितनी सोनमदी हों।
सहज वेदनाओं की डोली ,अक्सर इसी गली आती है
दुर्दिन में -----------------------------------।
पाषारों के पंख निकलते;
और फिसलते पांव धूप के।
नागफनी की दाल चिरैया -
बुनती सपने रंग -रूप के।
दूर कहीं विश्वास अकेला,
पावों के छाले सहलाते।
मर्यादाएं रूप बदलतीं , तिल-तिल शाम !ढली जाती है
दुर्दिन में ------------------------------------
संकटा प्रसाद श्रीवास्तवा "बन्धुश्री "

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