सोमवार, 23 मार्च 2009

ग़ज़ल ;अलका मिश्रा ,लखनऊ {उ.प्र.}

तुमने जब-जब देना चाहा मुझको अपना प्यार दिया
और वक्त पड़ने पर तुमने मुझको ही दुत्कार दिया।

जाने कैसी आग लगी थी आज हमारे सीने में
एक अकिंचन के चरणों पर अपना सब कुछ वार दिया।

क्या करने को पुण्य करें हम, इतने कष्ट सहें क्यूँ कर
सुनते हैं ईश्वर ने पापी रावण तक को तार दिया।

प्रेम, धैर्य , मर्यादा, ममता , करुणा, साहस , त्याग
तुमने इन नाजुक कंधों पर कैसा - कैसा भार दिया।

1 टिप्पणी:

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' ने कहा…

बहुत ही सुन्दर रचना!खास तौर पर तीसरा शेर रावण वाला बहुत अच्छा लगा।

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