रविवार, 22 मार्च 2009

ग़ज़ल ; के.के.सिंह मयंक अकबराबादी ,लखनऊ [उ.प्र.]

हो गया है मुझ से हर इक जाना-पहचाना अलग
देखकर हालत मेरी तुम भी न हो जाना अलग।

शम्मा से रह नहीं सकता है जब परवाना अलग
कैसे रह सकता है तुझसे तेरा दीवाना अलग ।

इस कदर वीरानगी है मयकदे में इन दिनों
जाम से मीना अलग है खुम से पैमाना अलग।

आप इन महलों को लेकर जायेंगे आख़िर कहाँ
हम बना लेंगे चमन में अपना काशाना अलग।

यूं तो वाबस्ता हैं दोनों जिंदगानी से मगर
उनका अफ़साना अलग है मेरा अफ़साना अलग।

मैं पीया करता हूँ अक्सर चश्मे-साकी से शराब
और रिन्दों से है मेरा जौके रिन्दाना अलग ।

एक रब्ते ख़ास है पीरे-मुगा से ऐ मयंक
हम बना सकते हैं वरना अपना मयखाना अलग।

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