शनिवार, 2 मई 2009

गीत ; सर्वत जमाल
धुंध और कुहरे से
आँखें बेहाल हैं
बेपनाह कचरे से .

नियमों के पालन में
यहाँ-वहां ढील है
चूजों की रक्षा को
प्रहरी अब चील है
राजा से मंत्री से
खौफ नहीं अब कोई
जनता को ख़तरा है
अब केवल मुहरे से .

पछुआ के झोंके से
होंट फटे जाते हैं
फर्नीचर बनने को
पेड़ कटे जाते हैं
नदियों में पानी का
तल नीचे आ पहुंचा
सागर भी लगते हैं
अब ठहरे -ठहरे से.

2 टिप्‍पणियां:

विजय तिवारी " किसलय " ने कहा…

अलका जी
पर्यावरण पर केन्द्रित आपकी ये रचना गागर में सागर जैसी है. सच , आज पर्यावरण बचाना अनिवार्य हो गया है
- विजय

Doobe ji ने कहा…

thanks for visiting my blog...n 4 ur valuable comment.....apka blog bahut acha laga....

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