रविवार, 12 दिसंबर 2010

ग़ज़ल ; 'नवाब' शाहाबादी



हम भी जीने का कुछ मजा लेते
दो घड़ी काश मुस्कुरा लेते

अपना होता बहुत बुलंद इकबाल
हम गरीबों की जो दुआ लेते

जौके-रिंदी को हौसला देता
जाम बढ़कर अगर उठा लेते

रास आता चमन का जो माहौल 
आशियाँ फिर कहीं बना लेते

सबके होंटों पे बददुआए  थीं
किससे फिर जा के हम दुआ लेते

कुलफतें सारी दूर हो जाती
पास अपने जो तुम बुला लेते

गम जो उनका 'नवाब' गर मिलता 
अपने सीने से हम लगा लेते 

                     'नवाब' शाहाबादी 
                 १२६ ए , एच ब्लाक, साउथ सिटी, 
               लखनऊ .   Mb. 9831221614

11 टिप्‍पणियां:

Arvind Jangid ने कहा…

किससे दुआएं लेते....

बेहतरीन रचना, प्रत्येक पंक्ति में क्या जान फूंकी है, साधुवाद स्वीकार करें

nilesh mathur ने कहा…

वाह! क्या बात है! बहुत सुन्दर!

शरद कोकास ने कहा…

अच्छा है ।

रचना दीक्षित ने कहा…

बहुत लाजवाब गज़ल है जैसे सबके दिलों का हाल लिख दिया

निर्मला कपिला ने कहा…

अपना होता बहुत बुलंद इकबाल
हम गरीबों की जो दुआ लेते
बेहतरीन गज़ल के लिये। बधाई।

विजय तिवारी " किसलय " ने कहा…

अलकाजी
आज साहित्य हिन्दुस्तानी पर पहली बार आया.
अच्छा लगा.
नवाब जी को बधाई.
सबके होंठों पे बद्दुआएँ थीं
किससे फिर जा के हम दुआ लेते
- डॉ. विजय तिवारी "किसलय"

Patali-The-Village ने कहा…

बहुत लाजवाब गज़ल है| बधाई।

सहज समाधि आश्रम ने कहा…

I really enjoyed reading the posts on your blog.

विशाल चर्चित (Vishal Charchit) ने कहा…

रास आता चमन का जो माहौल
आशियाँ फिर कहीं बना लेते...
नवाब साहब, आपको चमन रास आया या नहीं, पता नहीं लेकिन आपकी ये ग़ज़ल हमें बहुत रास आई है..मुबारक हो!!!

Dr.Sushila Gupta ने कहा…

very nice....thanks.

Jyoti khare ने कहा…

बहुत बढ़िया है

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