हम भी जीने का कुछ मजा लेते
दो घड़ी काश मुस्कुरा लेते
अपना होता बहुत बुलंद इकबाल
हम गरीबों की जो दुआ लेते
जौके-रिंदी को हौसला देता
जाम बढ़कर अगर उठा लेते
रास आता चमन का जो माहौल
आशियाँ फिर कहीं बना लेते
सबके होंटों पे बददुआए थीं
किससे फिर जा के हम दुआ लेते
कुलफतें सारी दूर हो जाती
पास अपने जो तुम बुला लेते
गम जो उनका 'नवाब' गर मिलता
अपने सीने से हम लगा लेते
'नवाब' शाहाबादी
१२६ ए , एच ब्लाक, साउथ सिटी,
लखनऊ . Mb. 9831221614
11 टिप्पणियां:
किससे दुआएं लेते....
बेहतरीन रचना, प्रत्येक पंक्ति में क्या जान फूंकी है, साधुवाद स्वीकार करें
वाह! क्या बात है! बहुत सुन्दर!
अच्छा है ।
बहुत लाजवाब गज़ल है जैसे सबके दिलों का हाल लिख दिया
अपना होता बहुत बुलंद इकबाल
हम गरीबों की जो दुआ लेते
बेहतरीन गज़ल के लिये। बधाई।
अलकाजी
आज साहित्य हिन्दुस्तानी पर पहली बार आया.
अच्छा लगा.
नवाब जी को बधाई.
सबके होंठों पे बद्दुआएँ थीं
किससे फिर जा के हम दुआ लेते
- डॉ. विजय तिवारी "किसलय"
बहुत लाजवाब गज़ल है| बधाई।
I really enjoyed reading the posts on your blog.
रास आता चमन का जो माहौल
आशियाँ फिर कहीं बना लेते...
नवाब साहब, आपको चमन रास आया या नहीं, पता नहीं लेकिन आपकी ये ग़ज़ल हमें बहुत रास आई है..मुबारक हो!!!
very nice....thanks.
बहुत बढ़िया है
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