सोमवार, 27 अप्रैल 2009

गजल * राम प्रकाश 'बेखुद'

खूबियों को देखते हैं खामियां गिनते नहीं
आम खाने से है मतलब, गुठलियाँ गिनते नहीं

अपने अपने जिस्म की चोटों का रखते हैं हिसाब
हम कुचल देते हैं कितनी चींटियाँ, गिनते नहीं

सर पे इक मजदूर के ईंटें तो गिनते हैं मगर
जिस्म में कितनी हैं उसके हड्डियाँ, गिनते नहीं

जो खुदा कर दे अता रहते हैं उसमें मुत्म इन
अपने दस्तरख्वान की हम रोटियां गिनते नहीं

हो अगर गाढे पसीने की कमाई तो गिनें
मुफ्त में मिलती हैं जिनको गड्डियां, गिनते नहीं

रास्ता बाहर निकल जाने का करते हैं तलाश
बैठे बैठे हम कफस की तीलियाँ गिनते नहीं

अपने हक में उठने वाले हाथ गिनते हैं मगर
उठ रही हैं हम पे कितनी उँगलियाँ, गिनते नहीं

3 टिप्‍पणियां:

वीनस केसरी ने कहा…

अपने अपने जिस्म की चोटों का रखते हैं हिसाब
हम कुचल देते हैं कितनी चींटियाँ, गिनते नहीं

हो अगर गाढे पसीने की कमाई तो गिनें
मुफ्त में मिलती हैं जिनको गड्डियां, गिनते नहीं

अपने हक में उठने वाले हाथ गिनते हैं मगर
उठ रही हैं हम पे कितनी उँगलियाँ, गिनते नहीं

ये शेर ख़ास पसंद आये

बस एक बात खटकी की लोग बुराइयां ज्यादा देखते है अच्छाई कम इस लिए मतले का पहला मिश्रा मुझे उलटी कहन का लगा

खूबियों को देखते हैं खामियां गिनते नहीं

शायद मेरी नासमझी हो ...

वीनस केसरी

गोविंद गोयल, श्रीगंगानगर ने कहा…

nice, narayan narayan

sonal ने कहा…

Gazal Bahut achchhi lagi.

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