शुक्रवार, 3 जुलाई 2009

गीत- सर्वत जमाल

पीठ पर,
लोगों ने फिर
रख लीं सलीबें हैं,
हाकिमों के हाथों में
शायद जरीबें हैं।
'राजधानी कूच' का
पैगाम है
गांव, बस्ती, शहर तक
कोहराम है
देवता वरदान देने पर तुले हैं
दो ही वर हैं
बाढ़ या सूखा।
खेत बिन पानी
फटे, फटते गये
या नदी की धार में
बहते गये
फसल बोना धर्म था, सो बो चुके हैं
क्या उगेगा
डंठलें ,भूसा .

6 टिप्‍पणियां:

श्यामल सुमन ने कहा…

दो ही वर हैं - बाढ़ या सूखा ------ वाह अलका जी। भावपूर्ण रचना।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

बहुत मार्मिक!
रक्षाबंधन पर हार्दिक शुभकामनाएँ!
विश्वभ्रातृत्व विजयी हो!

Ram Shiv Murti Yadav ने कहा…

Behad dilchasp rachna..badhai.

M VERMA ने कहा…

बहुत मार्मिक रचना
सामयिक और अर्थपरक

Rakesh 'Soham' ने कहा…

अलका जी,
कविता अच्छी लगी -
"दो ही वर हैं
बाढ़ या सूखा।"
इस पर मुझे अपनी एक रचना की कुछ लाइन याद आतीं हैं कि
"जानवर सी लम्बी पूँछ चाहिए
बस एक शक्ल मनहूस चाहिए.
सूखा हो या बाढ़ उन्हें क्या
नेता को तो लूट चाहिए.
[] राकेश 'सोऽहं'

M VERMA ने कहा…

फसल बोना धर्म था, सो बो चुके हैं
क्या उगेगा
डंठलें ,भूसा .
===
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति

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