मेरा हमराज वही मेरे मुकाबिल भी वही
मेरा रखवाला वही है मेरा कातिल भी वही
जिसने खतरे से खबरदार किया था मुझको
मेरी बर्बादी के आमाल में शामिल भी वही
मैंने जिसके लिए दरवाजे सभी बंद किए
क्या पता मेरे दिल में था दाखिल भी वही
छोड़कर गैर की महफ़िल मैं चला आया यहाँ
है यहाँ वैसा ही माहौल यह महफ़िल भी वही
सच तो यह है कि ' अधीर ' इस से रहा नावाकिफ
मेरा रस्ता भी वही है मेरी मंजिल भी वही ।
शनिवार, 11 अप्रैल 2009
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1 टिप्पणी:
प्रिय अधीर जी , नमस्कार. बहुत उमदा ग़ज़ल है आपकी. आपको आज भी दस साल पहले की तरह सक्रिय देखकर बहुत सुख मिला. पता नहीं आप मुझे शायद भूल गये हों. आपको बाराबंकी में बुढ़ापे का सहारा कविता याद होगी. मैं मूलत:लघुकथा लेखन से जुड़ा हुआ हूं. अभी दैनिक जागरण मे़ 03.01.2011 को जीवनदान लघुकथा प्रकाशित हुयी थी. .. उमेश मोहन धवन..
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