कविता : अलका मिश्रा
जिन्दगी जीने की
कला सिखाना
भूल गये मुझे
मेरे बुजुर्ग !
मैंने देखा
लोगो ने बिछाए फूल
मेरी राहों में,
प्रफुल्लित थी मैं !
पहला कदम रखते ही
फूलों के नीचे
दहकते शोले मिले,
कदम वापस खींचना
मेरे स्वाभिमान को गंवारा नहीं था;
इस कदम ने
खींच दी तस्वीर यथार्थ की ,
दे दी ऎसी शक्ति
मेरी आँखों में
जो अब देख लेती हैं
परदे के पीछे का 'सच' .
हर कदम पर
लगता है
आ गया चक्रव्यूह का सातवाँ द्वार
जिसे नहीं सिखाया तोड़ना
मेरे बुजुर्गों ने मुझे
और मैं
हार जाउंगी अब !
किन्तु
वाह रे स्वाभिमान
जो हिम्मत नहीं हारता
जो नहीं स्वीकारता
कि मैं चक्रव्यूह में फंसी
' अभिमन्यु ' हूँ
जिस पर वार करते हुए
सातों महारथी
भूल जायेंगे युद्ध का धर्म .
एक बार पुनः
ललकारने लगता है
मेरे अन्दर का कृष्ण , मुझे
कि उठो ,
युद्ध करो !
और जीत लो
जिन्दगी का महाभारत .
पुनः
आँखों में ज्वाला भरे
आगे बढ़ते कदमों के साथ
सोचती हूँ मैं
कि
जिन्दगी जीने की
कला सिखाना
भूल गये मुझे
मेरे बुजुर्ग !
7 टिप्पणियां:
बुजुर्ग ही तो बता गए ....
हर धर्म धारी अधम ' धर्म ' मिटाने ही वाले हैं .
हर ' अभिमन्यु ' जनमता है शहादत के लिए ही !
बहुत ही अच्छा लेखन !
जारी रहे !
very great
अच्छा लिखा है । भाव और विचार के स्तर पर अभिव्यक्ति प्रखर है ।
मैने अपने ब्लाग पर एक लेख लिखा है-फेल हो जाने पर खत्म नहीं हो जाती जिंदगी । समय हो तो पढ़ें और अपना कमेंट भी दें-
http://www.ashokvichar.blogspot.com
आशा जगानेवाली और अदम्यता को उभाड़नेवाली कविता।
अंतिम पंक्तियों में शंका सी उठती है आपके मन में। इसका भी निवारण कर देना होगा। बुजुर्गों नहीं सिखाया तो क्या, अब इतनी दूर निकल आए हैं, तो आगे का रास्ता भी सकशुल तय कर ही लेंगे।
इसी तरह की हिंदी की श्रेष्ठतम रचना निराला की राम की शक्ति पूजा है। इसमें भी राम की (और परोक्ष रूप से) निराला भी एक पल के लिए सशंकित हो उठते हैं, पर जल्दी संभल जाते हैं, और समर जीत जाते हैं।
सच के करीब है आपकी कविता।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
आत्मीय अलका जी एवं एम् सर्वत साहब
हम अभिभूत हैं आप दोनों का स्नेह पाकर
आनन्दित हैं यह देखकर की आप दोनों ही गजल के व्याकरण में निष्णात हैं .
हमें तो गजल का ग भी नहीं आता .
जब सीखने निकले थे तो बहुत हतोत्साहित किये गए गये .अब न समय मिलता है न हौसला बचा है शायद उतनी विनम्रता भी नहीं बची है जो सीखने के लिए आवश्यक होती है फिर भी जो कुछ है उसे आपकी आत्मीयता मिल जाती है हमारे लिए यही बहुत है .आप दोनों के सुझाव के अनुसार हमने अपनी पाण्डुलिपि में संशोधन कर लिया है .
आप दोनों के सम्बन्ध में अनुमान कर रहे है कृपया आप ही बतादें अपना रिश्ता .
अलका जी की यह कविता अद्भुत है .जीवन के दर्शन से यथार्थ के अंतर्द्वंद को पूरी सामर्थ्य के साथ उकेरने में सफल .
अलका जी का इस लिए भी आभार की उन्होंने एम् साहब का लिंंक भी दिया
फूलों के नीचे दहकते शोले... सुन्दर भावाभिव्यक्ति..
एक टिप्पणी भेजें