सोमवार, 15 जून 2009

गजल ; मंज़र लखनवी

चाशनी को जबान में रखा
इत्र ही इत्रदान में रखा।


आपको जिसने ध्यान में रखा
ख़ुद को दारुल अमान में रखा।

धूप में रह के मैंने गज़लों को

फिक्र के सायबान में रखा।

तब्सरा जब किसी पे मैंने किया

आईना दरमियान में रखा।



मेरे माँ-बाप की दुआओं ने
मुझको अपनी अमान में रखा ।


जो कहा दिल ने वो किया मैंने
ये परिंदा उड़ान में रखा।


नाम तेरा न आए गज़लों में
ये सदा मैंने ध्यान में रखा।


तुझको मैंने छुपा के दुनिया से
अपने दिल के मकान में रखा।

तू सादा लौही मेरी थी
दुश्मन को अपने ही तर्जुमान में रखा।


जब भी मैंने गजल कही 'मंज़र'
दिल की बातों को ध्यान में रखा।

8 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

मंज़र लखनवी जी।
गज़ल बहुत उम्दा है।
पढ़कर अच्छा लगा।

अविनाश वाचस्पति ने कहा…

बहुत अच्‍छा लगा पढ़कर
आकर, विचर कर।

RAJ SINH ने कहा…

मंजर जी की ग़ज़ल बहुत ही मन के लगी .

खास कर यह शेर .....

तबसरा जब किसी पे मैंने किया ,
आईना दरमियान में रखा .

कितनी बड़ी इंसानी सोच है !

बधाई हो !

गर्दूं-गाफिल ने कहा…

वाह मंजर साहब वाह
वल्लाह
इन शेरों की सादगी पर दिल कुर्बान हुआ

चाशनी को जबान में रखा
इत्र ही इत्रदान में रखा।

धूप में रह के मैंने गज़लों को
फिक्र के सायबान में रखा।

अनिल कान्त ने कहा…

waah kya likha hai...mazaa aa gaya

मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति

निर्मला कपिला ने कहा…

तबसरा जब किसी पे मैंने किया ,
आईना दरमियान में रखा .
बह्ुत खूबसूरत गज़्ल के लिये बधाइ लजवाब गज़ल्

अमिताभ श्रीवास्तव ने कहा…

मज़र साहब
बहुत खूब लिखते है आप.
धूप में रह के मैंने गज़लों को
फिक्र के सायबान में रखा।..
क्या बात है, तमाम शेर लाज़वाब्

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' ने कहा…

मंजर साहब,बहुत अच्‍छा लगा....
एक नई शुरुआत की है-समकालीन ग़ज़ल पत्रिका और बनारस के कवि/शायर के रूप में...जरूर देखें..आप के विचारों का इन्तज़ार रहेगा....

Blog Widget by LinkWithin