एक तरफा वहाँ फैसला हो गया
मैं बुरा हो गया ,वो भला हो गया
पूजते ही रहे हम जिसे उम्र भर
आज उसको भी हमसे गिला हो गया
जिस तरफ देखिये प्यास ही प्यास है
क्या हमारा शहर कर्बला हो गया
चाँद मेरी पहुँच से बहुत दूर था
आपसे भी वही फासला हो गया
एक साया मेरे साथ था कम्बरी
यूं लगा जैसे मैं काफिला हो गया ।
रविवार, 20 सितंबर 2009
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9 टिप्पणियां:
वाह जी, अंसार मंबरी जी को पढ़ कर बेहतरीन लगा. आपका आभार.
एक साया मेरे साथ था कम्बरी
यूं लगा जैसे मैं काफिला हो गया
मनभावन ग़ज़ल बाँटने के लिये शुक्रिया
वाह-वाह क्या बात है। लाजवाब अभिव्यक्ति। बहुत-बहुत बधाई........
वाह बहुत बढिया !!
आपकी पसंद वाकई लाजवाब है।
( Treasurer-S. T. )
अंसार कंबरी की गजल पढवाने के लिए आभार ।एक शानदार गजल
एक साया मेरे साथ था कम्बरी
यूं लगा जैसे मैं काफिला हो गया
अंसार कंबरी जी की ये ग़ज़ल पढ़ कर धन्य हो गया.
आपको भी हार्दिक धन्यवाद कि आपने उनकी इस ग़ज़ल से हम लोगों को अवगत कराया.
चन्द्र मोहन गुप्त
जयपुर
www.cmgupta.blogspot.com
Bahut khub Kambari saheb....accha likha apne.
बहुत अच्छा
सुन्दर रचना
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