हद्दे-निगाह धूप सी बिखरी हुई लगी
तेरे बगैर एक सज़ा ज़िन्दगी लगी
सोचा था मैं ने हंस के गुजर जाऊँगा मगर
चलने पे राह जीस्त की काँटों भरी लगी
दुनिया हसीं है, इस की हर इक शय हसीं मगर
दिल को भली लगी तो तेरी सादगी लगी
उसका वजूद हो गया महसूस जिस घड़ी
घर की हर एक चीज़ महकती हुई लगी
कहते हैं लोग बेवफा उसको मगर मुझे
कुछ अपने प्यार, अपनी वफा में कमी लगी
जैसे कि शब के साथ जुडी रहती है सहर
रंजो-खुशी में भी यूंही वाबस्तगी लगी
तू यूं बसा हुआ है दिलो-जहन में मेरे
जिस बज्म में गया, मुझे महफिल तेरी लगी
नजरें चुरा के जाते उसे आज देख कर
कदमों तले जमीन सरकती हुई लगी
कैसी है, क्या है, जान भी पाया न मैं उसे
हस्ती बस एक ख्वाब तो क्या ख्वाब सी लगी
गुलशन वो जिस घड़ी से मेरे हमसफर हुए
हर राह ज़िन्दगी की चमकती हुई लगी
अलीगंज स्कीम-सेक्टर बी, लखनऊ.
9 टिप्पणियां:
सक्सेना जी की रचना पसंद आई. आपका आभार.
सुंदर रचना प्रेषित करने के लिए आपका धन्यवाद !!
सर, मैंने किसी व्यंग्य के उद्देश्य से नहीं लिखा था, रचना बहुत ही बढिया है. बरेली से लखनऊ प्रवास तो कम ही होता है, लोग-बाग दिल्ली की तरफ जाते हैं. क्षमा प्रार्थी हूं.
अलका जी
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दुनिया हँसी है .....
बहुत ही खूबसूरत शेर है ये सक्सेना जी का ...... पूरी ग़ज़ल लाजवाब है ...
बहुत ही खूबसूरत गज़ल पेश करने के लिये धन्यवाद ।
बहुत सुंदर रचना
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