शुक्रवार, 21 मई 2010

कविकुल के चाचा

इस गजल को आप तक पहुंचाने से पहले मुझे चाचा के बारे में आपको बताना पड़ेगा .कविकुल कानपुर की एक संस्था है ,जिसने बक-अप चाचा के नाम से एक गजल संग्रह प्रकाशित किया है ,इसकी भूमिका में इसके सम्पादक कृष्णा नन्द चौबे लिखते हैं ---इस संकलन के नायक चाचा ही क्यों हैं ? अगर इस पर गौर करें तो इसका कारण ये है कि चचा ग़ालिब से लेकर चाचा नेहरू और चाचा नेहरु से लेकर चाचा चौधरी तक हिन्दुस्तान में चाचाओं की एक परम्परा चली आ रही है .चाचा  को भतीजे पैदा करते हैं. भतीजों के बिना आदमी पिता तो क्या राष्ट्रपिता तक बन सकता है ,लेकिन चाचा नहीं हो सकता .
तो नायक चाचा के तीन भतीजों ने उन्हें गजलों में बाँधा है -वे हैं- श्री अंसार कंबरी ,सत्यप्रकाश शर्मा और राजेन्द्र तिवारी  
और चाचा के जलवे तो आजकल समीर लाल जी के यहाँ खूब दिखायी पड़ते हैं, सभी ब्लागर वाकिफ ही हैं .
आइये देखते हैं यहाँ चाचा का क्या हाल है- 

चचा हमको समझते हैं,चचा को हम समझते हैं
भतीजे हैं इसी से हम चचा का गम समझते हैं

ये दीगर बात है वो शायरी को कम समझते हैं,
कभी कुड़मुड़ समझते  हैं, कभी झइयम समझते हैं 

वो मिसरे को चबाकर उसकी चमड़ी खींच लेते हैं ,
कभी कम्पट,कभी टाफी ,कभी चिंगम समझते हैं 

चचा पहले थे हलवाई ,वही आदत अभी तक है ,
गजल को रसमलाई ,गीत को चमचम समझते हैं 

सियासत में चचा आये तो उसकी इक वजह ये है ,
इसे रोजी कमाने की वो इक तिकड़म समझते हैं.

10 टिप्‍पणियां:

nilesh mathur ने कहा…

बहुत ही मजेदार रचना है, और चाचा तो कमाल के हैं!

Atulyya ने कहा…

रचना के नीचे थम्बनेलवाले जो हाई लाईट्स आपने लगाये हैं, उन पर कर्सर लाने पर काले बैकग्राउण्ड पर सिर्फ़ फ़ोटो ही नज़र आता है और फ़ोटो के नीचे लिखा हुआ हैंडिंग नज़र नहीं आता. कृपया इसका समाधान hinditechblog@gmail.com
से प्राप्त करने का प्रयास क्यों न किया जाना चाहिये... उनकी पोस्ट में इस तरह की बात नज़र नहीं आती है।

सम्वेदना के स्वर ने कहा…

हमने भी चचा की फेहरिश्त में खुद को शुमार कर लिया.. एक तुकबंदी चचा के नाम:
चचा की राजनीति रह गई जाकिट के पाकिट में
कहें “बे-आबरू हो, असेम्बली से हम निकलते हैं.”
चचा के शौक हलवाईनुमा और चाची पूछे हैं
क्यों घर से खोये खोये से मेरे हमदम निकलते हैं.
चचा की शायरी में है भरा अरमान जन्मों का
ये दीगर बात कि अरमान उनके कम निकलते हैं.

राजकुमार सोनी ने कहा…

आपके ब्लाग पर आते रहना पड़ेगा। यहां तो पढ़ने लायक बहुत कुछ है। अभी दो रचनाएं पढ़ी है। ऊपर वाली और जल गई दुल्हन वाली। दोनों ही बेहतर।

Rajeev Nandan Dwivedi kahdoji ने कहा…

हा हा हा
बेहद ही मजेदार रचना है यह तो.
हम तो बस समीर जी को ही चच्चा समझते हैं.....
अरे नहीं फुरसतिया चच्चा भी हैं और कमलेश चच्चा भी हैं.....(कौनो नाराज होके मारने मत लगना !!)
हाँ.....पर भतीजा तो एक ही है ब्लॉग जगत का वह है ई-गुरु राजीव.
जो कि ई-गुरु भी है पर भतीजा भी !!
हा हा हा

हर्षिता ने कहा…

बहुत ही मजेदार रचना है।

Razi Shahab ने कहा…

लाजवाब

Apanatva ने कहा…

halkee pulkee mazedar rachana achee lagee.

Vinashaay sharma ने कहा…

मजे़दार,आपका यह आयाम तो पहली बार देखा है ।

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार ने कहा…

वाहजी !
चचा हमको समझते हैं,चचा को हम समझते हैं
भतीजे हैं इसी से हम चचा का गम समझते हैं

शानदार मतला !
सारे शे'र एक से बढ़कर एक !
पुरी ग़ज़ल रवां दवां !
बहुत बहुत बधाई !
मैं आपके यहां जब भी आता हूं , इतना अधिक मन की तृप्ति का सामान मिलता है कि आपकी लेखनी के लिए एक साथ सलाम और दुआएं करने लगता हूं ।
- राजेन्द्र स्वर्णकार
शस्वरं

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