मंगलवार, 29 दिसंबर 2009
ग़ज़ल-- अरविन्द कुमार सोनकर "असर'
लब उसके हैं खामोश मगर बोल रहा है .
मैं जानता हूँ हिर्सो-हवस हैं बुरे फिर भी
मैं देख रहा हूँ मेरा मन डोल रहा है .
अब देखो वो भी मुल्क पढ़ाता है हमें पाठ
जिसका न कुछ इतिहास न भूगोल रहा है
मुद्दत हुई है फिर भी तेरे प्यार का वो बोल
कानों में मेरे आज भी रस घोल रहा है
ईमान का तो मोल ही अब कुछ भी नहीं है
वैसे ये कभी मुल्क में अनमोल रहा है
शायद वो किसी और ही ग्रह का है निवासी
जो सबसे बड़े प्यार से हंस-बोल रहा है
गैरों के असर राजे-निहाँ मुझको बताकर
वो अपना ही खुद राजे-निहाँ खोल रहा है
सम्पर्क....२६८/४६/६६ डी, खजुहा, तकिया चाँद अली शाह, लखनऊ-२२६००४.
दूरभाष-- ०५२२-२२४१५८४ मोबाइल-- 09415928198
रविवार, 6 दिसंबर 2009
नज़्म - सर्वत जमाल
उजाले दफन होंगे
अँधेरा ही बढेगा
अगर निकला भी सूरज
तो उसकी रोशनी पर
कोई बादल भी होगा।
हमारी फ़िक्र कुछ थी
मिला है और ही कुछ,
सवेरा रात जैसा
तो शामें दोपहर सी।
हम अपनी जिंदगी को
बुझी सी रोशनी को
कहाँ से ताजगी दें,
मिटायें तीरगी तो
ये मटमैले उजाले
ये सूरज, चाँद, तारे
सियासी जहन वाले
कहाँ तक साथ देंगे?
हमारे जहन में जब
गुलामी ही बसी है
तो फिर यह शोर क्यों है,
ये नारे, ये नज़ारे
ये उजले कपडों वाले
ये लहराते से परचम
ये कौमी धुन की सरगम
भला किसके लिए हैं?
सियासी ज़हन वालो
ये नाटक मत उछालो।
जरा सूरज की सोचो
अगर कुछ धूप हो तो
हम उसकी रोशनी में
ठिठुरते इस बदन को
हरारत तो दिला दें।
मगर यह फ़िक्र अपनी
हमारे जहन तक है।
यहाँ होना वही है
किसी की कब चली है
उन्हीं का बोलबाला
हमारी जिंदगी क्या
हंसी क्या है खुशी क्या
पुरानी चादरों पर
कलफ फिर से चढी है।
इसी में आफियत है....
यही जम्हूरियत है.....
शुक्रवार, 4 दिसंबर 2009
गजल - नवाब शाहाबादी- लखनऊ
नहीं खैरियत कांच वाले घरों की
किया है पड़ोसी ने मजबूर इतना
कि फसलें उगानी पड़ीं खंजरों की
बहुत सुन चुके दौरे-हाज़िर के किस्से
चलो अब सुनें दास्तां मकबरों की
बुतों की परस्तिश हमेशा करेंगे
न आयेंगे चालों में हम काफिरों की
मशक्कत के फूलों से इसको सजाकर
चमनज़ार कर दो जमीं बंजरों की
बला की है दोनों तरफ भीड़ लेकिन
इधर खुदसरों की, उधर सरफिरों की
जिसे आप कहते हैं शहरे-निगाराँ
वो बस्ती है नव्वाब जादूगरों की
सोमवार, 30 नवंबर 2009
गजल ;सत्यप्रकाश शर्मा ,
मुद्दतों बाद , लफ्ज़ आए हैं
लफ्ज़ टपके हैं उसकी आंखों से
उसने आंसू नहीं गिराए हैं
मिल गयी हैं वुजूद को आँखें
लफ्ज़ जब से नज़र आए हैं
हम तो खामोशियों के पर्वत से
लफ्ज़ कुछ ही तराश पाये हैं
लफ्ज़ बाक़ी रहेंगे महशर तक
इनके सर पर खुदा के साए हैं
ये सुखन और ये मआनी सब
लफ्ज़ की पालकी उठाए हैं
लफ्ज़ तनहाइयों में बजते हैं
जैसे घुंघरू पहन के आए हैं
लफ्ज़ की रोशनी में हम तुमसे
जान पहचान करने आए हैं
कानपुर
9450936917
शुक्रवार, 16 अक्टूबर 2009
ग़ज़ल ,राजेन्द्र तिवारी ,कानपुर
अब आँख के पानी के लिए सोचता है कौन
प्यास अपनी बुझाने में मसरूफ हैं सभी लोग
दरिया की रवानी के लिए सोचता है कौन
बेताब नयी नस्ल है पहचान को अपनी
पुरखों की निशानी के लिए सोचता है कौन
मिट्टी के खिलौनों पे फ़िदा होती है दुनिया
मिट्टी की कहानी के लिए सोचता है कौन
सब अपने लिए करते हैं लफ्जों की तिजारत
लफ्जों की मआनी के लिए सोचता है कौन?
मंगलवार, 29 सितंबर 2009
ग़ज़ल ; सत्यप्रकाश शर्मा
नज़र न लगे परिंदे ! उड़ान अच्छी है
न खुशकलाम अगर हो सको तो कम से कम
ख़मोश ही रहो ,दिल की ज़बान अच्छी है
चमकते लफ्ज़ निकाले हैं इन अंधेरों से
हमारे वास्ते दिल की खदान अच्छी है
ये जिन्दगी है ,यहाँ गम के खूब जंगल हैं
कहीं मिले तो खुशी की मचान अच्छी है
तुम्हारा दिल है ,तुम अपने ख़याल ख़ुद जानो
हमारे मुंह में हमारी ज़बान अच्छी है
खुशी का चेहरा उतरता है वक्त के आगे
मगर जो घटती नहीं ,गम की शान अच्छी है
ये जानता हूँ मुसीबत है प्यार में फ़िर भी
रहे बला से ,मुसीबत में जान अच्छी है
'प्रकाश' शेर कहो इस तरह कि लोग कहें
तुम्हारा दिल भी है अच्छा ,जबान अच्छी है ।
२५४ ,नवशील धाम
कल्यानपुर ,बिठूर मार्ग
कानपुर
9450936917
रविवार, 20 सितंबर 2009
गजल ; अंसार कंबरी ,कानपुर [उ. प्र.]
मैं बुरा हो गया ,वो भला हो गया
पूजते ही रहे हम जिसे उम्र भर
आज उसको भी हमसे गिला हो गया
जिस तरफ देखिये प्यास ही प्यास है
क्या हमारा शहर कर्बला हो गया
चाँद मेरी पहुँच से बहुत दूर था
आपसे भी वही फासला हो गया
एक साया मेरे साथ था कम्बरी
यूं लगा जैसे मैं काफिला हो गया ।
गुरुवार, 13 अगस्त 2009
गजल- मुश्ताक अहमद 'अर्श' चर्खार्वी
हसीं चेहरे का मंजर काटता है
सुना है जब से उसका हाले-गुरबत
कोई अंदर ही अंदर काटता है
न जाने और कितने लख्त होंगे
कोई बाजू कोई सर काटता है
शहर से लौट तो आया वो लेकिन
उसे गाँव का मंजर काटता है
ये इन्सां है कि है खंजर से बदतर
बड़ी फितरत से मिल कर काटता है
रहे क्या वो चमन में फूल बन कर
यहाँ पत्थर को पत्थर काटता है
भला तुम को कहूं मैं कैसे अपना
मुझे मेरा मुकद्दर काटता है
ये घर की अर्श वीरानी न पूछो
भरा घर है मगर घर काटता है.
शुक्रवार, 3 जुलाई 2009
गीत- सर्वत जमाल
लोगों ने फिर
रख लीं सलीबें हैं,
हाकिमों के हाथों में
शायद जरीबें हैं।
'राजधानी कूच' का
पैगाम है
गांव, बस्ती, शहर तक
कोहराम है
देवता वरदान देने पर तुले हैं
दो ही वर हैं
बाढ़ या सूखा।
खेत बिन पानी
फटे, फटते गये
या नदी की धार में
बहते गये
फसल बोना धर्म था, सो बो चुके हैं
क्या उगेगा
डंठलें ,भूसा .
शुक्रवार, 26 जून 2009
कविता ; सर्वत जमाल , गोरखपुर उ.प्र.
प्रेम, प्यार ,अनुराग ,मुहब्बत
यह भावनाएं मुझमें भी हैं
आख़िर हूँ तो मैं भी
इंसान ही ।
किसी की नशीली आँखें
सुलगते होंठ
खुले-अधखुले , सुसज्जित केश
मुझे भी प्रभावित करते हैं
शायद तुम्हे विश्वास नहीं
क्योंकि मेरी रचनाओं में
तुम्हें इसकी परछाई तक
दिखाई नहीं पड़ती।
यह भी मेरे
प्रेम , अनुराग
प्यार , मुहब्बत का
प्रमाण है
जो मुझे है
प्रकृति से ,
धरती से ,
विधाता की हर रचना से।
मैं नफरत करता हूँ
शोषण से ,
अत्याचार से ,
दिखावे से,
झूट को सच
और सच को
झूट कहने से ।
यही कारण है
मेरी रचनाएं
इनके विरोध में खड़ी हैं ।
जब कभी
इस अघोषित युद्ध में
जीत ,
मेरी कविताओं की
मेरे विचारों की होगी
और हार जायेंगे
शोषण , अत्याचार , कदाचार
एवं
धरती पर नफरत उगाने वाले
और उनके सहायक तत्व
तब इस धरती पर
सिर्फ़ प्रेम होगा
कोई बच्चा ,
नहीं शिकार होगा
कुपोषण और
बालश्रम के
दानव का ।
कोई महिला
देह्शोषित
नहीं होगी ।
कोई पुरूष
अपने ही
परिजनों की नजरों में
शर्मिन्दा नहीं होगा
तब
मेरी रचनाएं
फ़िर
समय का दर्पण बनेंगी
और एक
नया फलक बनाएंगी ,
इस धरती के लिए ।
मुझे विश्वास है
तब मैं अकेला नहीं रहूँगा
अजूबा नहीं रहूँगा
और ऐसा नहीं रहूँगा ।
परन्तु क्या
मेरे जीते जी
ऐसा होगा ?
मंगलवार, 23 जून 2009
गजल - महशर बरेलवी , लखनऊ
यह मजाक अच्छा है इन्सान का इन्सान के साथ
सिर्फ़ दो पल को मेरे लब पे हंसी आई है
कैसे दो पल ये गुजारूं नये मेहमान के साथ
कत्ल होने भी चला जाऊँगा हंसते हंसते
कोई देखे तो बुला कर मुझे सम्मान के साथ
तुझ से तो लाख गुना अच्छा है दाना दुश्मन
दोस्ती मैं नहीं करता किसी नादान के साथ
उनको अमवाजे-हवादिस से डराते क्यों हो
खेलते ही जो चले आए हैं तूफ़ान के साथ
मेरी किस्मत भी बदल देगा बदलने वाला
द्फ़्न हो जाऊंगा इक दिन इसी अरमान के साथ
दस्ते-वहशत की हुई अबके नवाजिश ऐसी
मेरा दामन भी गया मेरे गिरेबान के साथ
मैं भी घुट घुट के मरूं, यह मेरा शेवा ही नहीं
देख लेना कि मरूंगा मैं बड़ी शान के साथ
कौन जाने कि वो रहबर है कि रहजन महशर
कैसे चल दूँ मैं सफर को किसी अनजान के साथ
सोमवार, 15 जून 2009
गजल ; मंज़र लखनवी
इत्र ही इत्रदान में रखा।
आपको जिसने ध्यान में रखा
ख़ुद को दारुल अमान में रखा।
धूप में रह के मैंने गज़लों को
फिक्र के सायबान में रखा।
तब्सरा जब किसी पे मैंने किया
आईना दरमियान में रखा।
मेरे माँ-बाप की दुआओं ने
मुझको अपनी अमान में रखा ।
जो कहा दिल ने वो किया मैंने
ये परिंदा उड़ान में रखा।
नाम तेरा न आए गज़लों में
ये सदा मैंने ध्यान में रखा।
तुझको मैंने छुपा के दुनिया से
अपने दिल के मकान में रखा।
तू सादा लौही मेरी थी
दुश्मन को अपने ही तर्जुमान में रखा।
जब भी मैंने गजल कही 'मंज़र'
दिल की बातों को ध्यान में रखा।
गुरुवार, 11 जून 2009
गजल ; ज्योति शेखर
भूखे-नंगों का जश्ने-आजादी है।
आख़िर कुछ गूंगे लोगों ने मिलजुल कर
बहरों के दर पर आवाज उठा दी है।
हैं बदशक्ल स्वयंवर के सब भागीदार
किसको चुने ? बहुत बेबस शहजादी है।
इक-इक मण्डी है सब राजधानियों में
महँगी बिकती जिसमें उजली खादी है।
है जवाबदेही किसकी इन प्रश्नों की
यार सदन में प्रश्न यही बुनियादी है।
गुरुवार, 28 मई 2009
Fwd: niwedan
कविता : अलका मिश्रा
गज़ल ,के के सिंह ,मयंक
जिसमें न हो कोई भी दास
इश्को - मुहब्बत प्यार वफा
कब मुफलिस को आते रास
आओ मुझसे ले लो सीख
कहता है सबसे इतिहास
जिससे देश की हो पहचान
पहनेंगे हम वही लिबास
भीड़ को देख के लगता है
महलों से बेहतर वनवास
खारे जल का दरिया हूँ
कौन बुझाए मेरी प्यास
छत पर देख के उनको 'मयंक'
चाँद का होता है आभास ।
बुधवार, 27 मई 2009
गजल , ज्योति शेखर ,उ.प्र
हादसों के डर से जो सहमा नहीं है
आज फ़िर दंगा हुआ और उसका बेटा
अब तलक स्कूल से लौटा नहीं है ।
तुम कमीशन -जांच सब कुछ भूल जाते
तुमने नरसंहार को देखा नहीं है।
सब कहें ये हादसा ऐसे हुआ है
वो कहें ऐसा नहीं वैसा नहीं है।
उफ़ ये दिल है या अंधेरे बंद कमरे
कोई खिड़की कोई दरवाजा नहीं है।
सर से चुनर हाथ से बिछडे खिलौने
जिनका वहशत से कोई रिश्ता नहीं है।
देखकर माँ की नजर में सर्द दहशत
एक बच्चा देर से रोया नहीं है।
उजले भाषण -खाकी डंडे ,रंग ही रंग हैं
और बहता लाल रंग रुकता नहीं है।
किन फरिश्तों ने उसे कल बरगलाया
वो पडोसी तो मेरा ऐसा नहीं है।
मंगलवार, 26 मई 2009
ग़जल,राजेन्द्र तिवारी
मेरी खामोशियों में भी फ़साना ढूँढ लेती है
बड़ी शातिर है ये दुनिया बहाना ढूढ़ लेती है।
हकीकत जिद किए बैठी है चकनाचूर करने को
मगर हर आँख फ़िर सपना सुहाना ढूढ़ लेती है।
उठाती है जो ख़तरा हर कदम पर डूब जाने का
वही कोशिश समंदर में खजाना ढूढ़ लेती है ।
कमाई है न चिडिया की न कारोबार है कोई
वो केवल हौसले से आबो-दाना ढूढ़ लेती है ।
ये दुनिया मस्लहत 'मंसूर'की समझी नहीं अब तक
सलीबों पर जो हंसना-मुस्कुराना ढूढ़ लेती है ।
जुनूं मंजिल का राहों में बचाता है भटकने से
मेरी दीवानगी अपना ठिकाना ढूढ़ लेती है ।
ग़ज़ल ,सत्य प्रकाश शर्मा
हर एक बात की होती नहीं दलील मियाँ
अजब ये दौर है सब फाख्ता उडाते हैं
नहीं तो काम ये करते थे बस खलील मियाँ
हमें ये डर नहीं ,इज्ज़त मिले या रुसवाई
ये फिक्र है कि न एहसास हो जलील मियाँ
हुजूम तश्नालबों का है हर तरफ , लेकिन
दिखाई देती नहीं एक भी सबील मियाँ
सफ़ेद झूठ से सच हार जायेगा, तय है
बशर्ते ढूँढ लो शातिर कोई वकील मियाँ
हमारे जिस्म पे बेशक कोई खरोंच नहीं
हमारी रूह पे हैं बेशुमार नील मियाँ।
सोमवार, 11 मई 2009
ग़ज़ल: अंसार कम्बरी
रेत के दरिया , रेत के झरने , प्यास का मारा करता क्या
बादल-बादल आग लगी थी , छाया तरसे छाया को
पत्ता-पत्ता सूख चुका था, पेड़ बेचारा करता क्या
सब उसके आँगन में अपनी राम कहानी कहते थे
बोल नहीं सकता था कुछ भी घर चौबारा करता क्या
तुमने चाहे चाँद-सितारे ,हमको मोती लाने थे
हम दोनों की राह अलग थी साथ तुम्हारा करता क्या
ये न तेरी और न मेरी ,दुनिया आनी-जानी है
तेरा - मेरा, इसका-उसका फ़िर बँटवारा करता क्या
टूट गये जब बंधन सारे और किनारे छूट गये
बीच भंवर में मैंने उसका नाम पुकारा ,करता क्या
ग़ज़ल ; राजेन्द्र तिवारी ,कानपुर
अगर तुम प्यार का मतलब न समझे
हमारा नाम है सबकी जबाँ पर
नया किस्सा ज़माने ने गढा क्या ?
तुम उसके नाम पर क्यों लड़ रहे हो
ग़ज़ल ; सत्य प्रकाश शर्मा
ग़ज़ल ; अंसार कम्बरी
गुरुवार, 7 मई 2009
गजल ; सत्य प्रकाश शर्मा , कानपुर
दीवाने ,कहीं मरने से, इनकार न कर दें
इल्जाम न आ जाए कोई मेरी अना पर
एहबाब मेरा रास्ता हमवार न कर दें
इस खौफ से उठने नहीं देता वो कोई सर
हम ख्वाहिशें अपनी कहीं मीनार न कर दें
मुश्किल से बचाई है ये एहसास की दुनिया
इस दौर के रिश्ते इसे बाज़ार न कर दें
यह सोच के नजरें वो मिलाता ही नहीं है
आँखें कहीं जज्बात का इज़हार न कर दें
गजल ; अंसार कम्बरी ,कानपुर
पहले देखें स्वयं अपना अंतःकरण
कितना संदिग्ध है आपका आचरण
रात इसकी शरण , प्रात उसकी शरण
आप सोते हैं सत्ता की मदिरा पिये
चाहते हैं कि होता रहे जागरण
फूल भी हैं यहाँ , शूल भी हैं यहाँ
देखना है कहाँ पर धरोगे चरण
आप सूरज को मुट्ठी में दाबे हुये
कर रहे हैं उजालों का पंजीकरण
शब्द हमको मिले ,अर्थ वो ले गये
न इधर व्याकरण, न उधर व्याकरण
लीक पर हम भी चलते मगर कम्बरी
कौन है ऐसा जिसका करें अनुसरण
गजल-- राजेन्द्र तिवारी, कानपुर
घबराए तो लेकिन कभी रस्ता नहीं बदला
गिरगिट की तरह रंग बदलते हैं यहाँ लोग
हमने तो कभी खेल में पाला नहीं बदला
है चाँद वही, चाँद की तासीर वही है
सूरज से जो मिलता है उजाला, नहीं बदला
कहते हैं अजी आप जमाने को बुरा क्यों
हम आप ही बदले हैं, जमाना नहीं बदला
खुदगर्जी में तब्दील हुए हैं सभी रिश्ते
है एक मुहब्बत का जो रिश्ता, नहीं बदला
बांहों में रहा चाँद हमारी ये सही है
किस्मत का मगर अपनी सितारा नहीं बदला
लफ्जों को बरतने का हुनर सीख रहा हूँ
लफ्फाजी नहीं की है तो लहजा नहीं बदला
कहते हैं मेरे चाहने वाले यही अक्सर
राजेन्द्र है वैसा ही, जरा सा नहीं बदला
मंगलवार, 5 मई 2009
गीत ; सर्वत ज़माल
चलते ही रहना जीवन है
तेज़ हवाएं क्या होती हैं
गर्म शिलाएं क्या होती हैं
वह क्या छान सकेंगे जंगल
जिनके पाँव तले है मखमल
हमसे पूछो जीवन गाथा
दंत कथाएं क्या होती हैं
पछुआ या पुरवाई कैसी
मरने में कठिनाई कैसी
चिंता ही इस युग में विष है
विष - कन्याएं क्या होती हैं
हक - अधिकार जताना सीखो
अब हथियार उठाना सीखो
हाथ बढाकर छीनो रोटी
मर्यादाएं क्या होती हैं ?
सोमवार, 4 मई 2009
ग़ज़ल -के० के० सिंह मयंक
शनिवार, 2 मई 2009
धुंध और कुहरे से
आँखें बेहाल हैं
बेपनाह कचरे से .
नियमों के पालन में
यहाँ-वहां ढील है
चूजों की रक्षा को
प्रहरी अब चील है
राजा से मंत्री से
खौफ नहीं अब कोई
जनता को ख़तरा है
अब केवल मुहरे से .
पछुआ के झोंके से
होंट फटे जाते हैं
फर्नीचर बनने को
पेड़ कटे जाते हैं
नदियों में पानी का
तल नीचे आ पहुंचा
सागर भी लगते हैं
अब ठहरे -ठहरे से.
शुक्रवार, 1 मई 2009
गुरुवार, 30 अप्रैल 2009
२ गजलें
अ-८, गांधीनगर, खुर्रमनगर,
पिकनिक स्पॉट रोड, लखनऊ-२२६०२२
वक्त की धूप में झुलसे हैं बहुत
उतरे उतरे से जो चेहरे हैं बहुत
खौफ ने पांव पसारे हैं बहुत
सहमे सहमे हुए बच्चे हैं बहुत
इतनी मासूम है गुलशन की फिजा
साँस लेने में भी खतरे हैं बहुत
बेशकीमत हैं ये किरदार के फूल
जिंदगी भर जो महकते हैं बहुत
लुत्फ़ जीने में नहीं है कोई
लोग जीने को तो जीते हैं बहुत
मुत्तहिद हो गये पत्थर सारे
और आईने अकेले हैं बहुत
जो बुजुर्गों ने किए हैं रोशन
उन चिरागों में उजाले हैं बहुत
सब्र के घूँट बहुत तल्ख सही
फल मगर सब्र के मीठे हैं बहुत
सीख लो फूलों से जीना 'मंजर'
रह के काँटों में भी हँसते हैं बहुत
************************
तडपे, नाचे, रोए, गाए
दिल हर सांचे में ढल जाए
नाच हमें तिगनी का नचाए
किस्मत क्या क्या खेल दिखाए
खोलूँ जबां तो मेरी जबां पर
कैसे तेरा नाम न आए
आइना बनकर जीना जो चाहा
दुनिया ने पत्थर बरसाए
ऐसा जीना भी क्या जीना
अपनी धूप न अपने साए
इश्क-ओ-मुहब्बत के नगमे अब
कौन सुने और कौन सुनाए
लम्बी तान के सोने वाले
वक्त का पंछी उड़ता जाए
हम भी फूल हैं इस गुलशन के
हम से कोई खार न खाए
फिकरे - जहाँ सब छोड़ के 'मंजर'
अपनी धुन में गाता जाए
सोमवार, 27 अप्रैल 2009
गजल * राम प्रकाश 'बेखुद'
आम खाने से है मतलब, गुठलियाँ गिनते नहीं
अपने अपने जिस्म की चोटों का रखते हैं हिसाब
हम कुचल देते हैं कितनी चींटियाँ, गिनते नहीं
सर पे इक मजदूर के ईंटें तो गिनते हैं मगर
जिस्म में कितनी हैं उसके हड्डियाँ, गिनते नहीं
जो खुदा कर दे अता रहते हैं उसमें मुत्म इन
अपने दस्तरख्वान की हम रोटियां गिनते नहीं
हो अगर गाढे पसीने की कमाई तो गिनें
मुफ्त में मिलती हैं जिनको गड्डियां, गिनते नहीं
रास्ता बाहर निकल जाने का करते हैं तलाश
बैठे बैठे हम कफस की तीलियाँ गिनते नहीं
अपने हक में उठने वाले हाथ गिनते हैं मगर
उठ रही हैं हम पे कितनी उँगलियाँ, गिनते नहीं
गजल * राम प्रकाश 'बेखुद'
न अब वो हुस्ने समाअत किसी के कान में है
बदल न दे वो कहीं रुख तेरे सफीने का
वो मुख्तसर सा जो सूराख बादबान में है
ये कहके वार दुबारा किया है कातिल ने
जरा सी जान अभी इस लहूलुहान में है
मेरी पसंद की गुडिया नजर नहीं आती
सुना हर एक खिलौना तेरी दुकान में है
न जाने कैसे वो दिन काटता है बारिश में
वो जिस गरीब का घर दोस्तों ढलान में है
रहे वफा पे मेरे सिर्फ़ नक्शे पा ही नहीं
मेरा लहू भी मेरे पांव के निशान में है
न जाने कौन सी आंधी बिखेर दे बेखुद
हर एक शख्स यहाँ रेत के मकान में है
रविवार, 26 अप्रैल 2009
ग़ज़ल ;रमेश नारायण सक्सेना 'गुलशन बरेलवी' [उ.प्र.]
शुक्रवार, 17 अप्रैल 2009
जो बात तुममें थी वो बात कहाँ है
पहले की तरह रस्मे मुलाकात कहाँ है.
मायूसियों ने लूट लिया प्यार का वजूद
अब मेरे मुकद्दर में तेरी जात कहाँ है.
भूले से तेरी याद मुझे आती नहीं है
वो प्यार,वो उल्फत,वही ज़ज्बात कहाँ है.
जब हुस्न ही है इश्क के आदाब से खमोश
उल्फत में बता इश्क की अब मात कहाँ है.
एहसास तो मोमिन है मगर मुझको बता आज
तूफ़ान बदामा वो तेरी जात कहाँ है.
बुधवार, 15 अप्रैल 2009
घनाक्षरी ;जगदीश शुक्ल लखनऊ [उ.प्र.]
पुत्री में स्वरूप विंध्यवासिनी का दिखा जिन्हें ,वहां श्रद्धा-सुमन-प्रसाद बनी बेटियाँ
बड़े-बड़े कारनामे करके दिखाने लगीं ,छाप दाल युग हेतु याद बनी बेटियाँ
पिता को मुखाग्नि तक देने का निभा के धर्म,तोड़ के मिथक अपवाद बनी बेटियाँ।
बेटों संग पली-बढ़ी ,खेली-कूदी,बड़ी हुई ,पढ़-लिख कर शौर्यवान बनी बेटियाँ
गायन व वादन सी ललित कलाएं सीख,गृहकार्य दक्ष गुणवान बनी बेटियाँ
माता-पिता के लिए वे सबल सहारा बनी,सच्ची सेवा-धर्म का प्रमाण बनी बेटियाँ
धरती -गगन को भुजाओं में समेट कर ,सिन्धु नापने का अभियान बनी बेटियाँ।
व्याकुलता व्याप्त हुई चिंता की लकीरें खिंची ,जिन माता-पिता की सयानी हुई बेटियाँ
उन पर नज़रों के पहरे बिठाए गए ,कुल की प्रतिष्ठा की निशानी हुई बेटियाँ
ऊंचनीच जीवन का समझाया जाने लगा,परिवार की विचित्र प्राणी हुई बेटियाँ
वर मिला ब्याही गयीं,दोनों परिवारों बीच,स्नेह-संपदा की राजधानी हुई बेटियाँ।
नाज-नखरे सभी उठाते रहे माता-पिता ,पलको पे सदा ही बिठाई गई बेटियाँ
पाली और पोषी गई बड़े ही जतन से वे ,सुघर व निपुण बनाई गई बेटियाँ
पेट काट-काट कर दान व दहेज़ दे के ,नयनों से दूर भी बसाई गई बेटियाँ
किंतु जहाँ-जहाँ मिले लालची व फरेबी लोग, वहाँ-वहाँ घरों में जलाई गई बेटियाँ।
मंगलवार, 14 अप्रैल 2009
ग़ज़ल के. के. सिंह 'मयंक'
चिरागे जीस्त फिर भी जल रहा है
जिन्हें औकात का मतलब सिखाया
वो कहते हैं तेरी औकात क्या है
न हल होगा कभी तुमसे ये वाइज़
निगाहो दिल का हजरत मस-अ-ला है
करम फरमाइए हम पर भी इक दिन
जहाँ वालो! हमारा भी खुदा है
है लहजा तो बहुत ही सख्त उसका
मगर वह आदमी दिल का भला है
मुझे कहती है क्यों दीवाना दुनिया
कोई बतलाओ मुझको क्या हुआ है
उसूलों की न कीजे बात हमसे
मुहब्बत जंग में सब कुछ रवा है
कहाँ ले आई है मुझको मुहब्बत
कोई हमदम न कोई हमनवा है
वो दिल लेकर करेगा बेवफाई
मयंक इतना तो हमको भी पता है
सोमवार, 13 अप्रैल 2009
ग़ज़ल -- नफीस गाजीपुरी
फिर वही रतजगों का मौसम है
दोस्ती, दिलदही, वफादारी
इन चिरागों की लौ भी मद्धम है
फूल मुरझा रहे हैं आरिज़ के
मेरी आँखों में थोड़ी शबनम है
कौन उठ कर गया है सहरा से
क्यों गज़ालों की आँख पुरनम है
जुल्फ-ए-हस्ती संवर न पायेगी
जुल्फ-ए-गेती बहुत ही बरहम है
दिन गुजरने तो दो कुछ और नफीस
वक्त सुनते हैं खुद भी मरहम है
शनिवार, 11 अप्रैल 2009
कवित्त : अरविन्द कुमार झा ,ऐशबाग ,लखनऊ[उ.प्र.]
ग़ज़ल ;भोलानाथ 'अधीर' प्रतापगढ़ ,[उ.प्र.]
मेरा रखवाला वही है मेरा कातिल भी वही
जिसने खतरे से खबरदार किया था मुझको
मेरी बर्बादी के आमाल में शामिल भी वही
मैंने जिसके लिए दरवाजे सभी बंद किए
क्या पता मेरे दिल में था दाखिल भी वही
छोड़कर गैर की महफ़िल मैं चला आया यहाँ
है यहाँ वैसा ही माहौल यह महफ़िल भी वही
सच तो यह है कि ' अधीर ' इस से रहा नावाकिफ
मेरा रस्ता भी वही है मेरी मंजिल भी वही ।
गीत ; संकटा पसाद श्रीवास्तवा 'बंधू श्री' करनैलगंज[उ.प्र.]
मुझको आती लाज आज है खुशबूदार जवानी पर।
रोज पालते घाव ह्रदय में,
और उन्हें सहलाते हैं
झूठ-सांच की मरहम पट्टी
से मन को बहलाते हैं
वंशज हैं राणा प्रताप के
और शिवाजी के शागिर्द
दाग लगाकर बैठ गये हम, वीरों की कुर्बानी पर
आती मुझको ----------------------------।
पीट-पीट कर ढोल सड़क पर
करते ता-ता-थैया रोज
डुबो रहे गांधी ,सुभाष औ
शेखर वाली नैया रोज
कभी अहिंसा,कभी शान्ति
तो कभी निपट भाई-चारा
सोच-सोच कर तंग आ चुके ,अपनी इस नादानी पर
आती मुझको------------------------------।
भले तिरंगा लहरायें हम
अम्बर की ऊंचाई तक
पटी न मुझसे छप्पन वर्षों
में कटुता की खाई तक
माना मेरी सैन्य -शक्ति से
सारा जग थर्राता है
फिर भी करते म्याऊँ -म्याऊँ चूहे की मनमानी पर
आती मुझको-------------------------------.
ग़ज़ल:के० के० सिंह मयंक अकबराबादी [उ.प्र.]
बोलो क्या है इसका राज।
दुनिया तक क्यों पहुंची बात
जब तू था मेरा हमराज।
जिसका हो अंजाम बुरा
कौन करे उसका आगाज़।
हर मोमिन का फ़र्ज़ यही है
पाँच वक्त की पढ़े नमाज़।
इश्क ने चलकर राहे वफा में
हुस्न को बख्शा है एजाज़।
उनकी बज्म में लेकर पहुँची
मुझको तखैयुल की परवाज़।
अपनी ग़ज़ल में लाओ मयंक
मीरो-गालिब के अंदाज़।